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( २५६ ) बरसो देव ! यथासुख बरसो ! मेरी कुटिया छाई हुई है। (ठंडी) हवा अन्दर न आ सकने के कारण वह सुखकारी है। मेरा चित्त समाधि में दृढतापूर्वक लीन है। (कामासक्ति से) विमुक्त हो चुका है। निर्वाण के लिए उद्योग चल रहा है। बरसो देव ! यथा मुख बरसो ।' एक दूसरे भिक्षु ने इसी अनुभव को इनसे भी अधिक सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है मुन्दर गीत के समान देव बरसता है ! मेरी कुटिया छाई हुई है ! (ठंढी) हवा अन्दर न आ सकने के कारण वह सुखकारी है ! उसमें शान्त-चित्त, ध्यानस्थ में बैठा हूँ। बरसो देव ! जितनी तुम्हारी इच्छा हो बरसो !
सुन्दर गीत के समान देव बरसता है ! मेरी कुटिया छाई हुई है ! (ठंडी) हवा अन्दर न आ सकने के कारण वह सुखकारी है ! उसमें शान्त-चित्त में ध्यान कर रहा हूँ ! वीत-राग ! वीत-द्वेष ! वीत-मोह ! बरसो देव ! जितनी तुम्हारी इच्छा हो बरसो ! २
१. छन्ना मे कुटिका सुखा निवाता वस्स देव यथासुखं ।
चित्तं मे सुसमाहितं विमुत्तं आतापी विहरामि वस्स देवा' ति । गाथा १ २. वस्सति देवो यथा सुगीतं, छन्ना मे कुटिका सुखा निवाता।
तस्सं विहरामि वूपसन्तो, अथ चे पत्थयसि पवस्स देव ॥ वस्सति देवो यथा सुगीतं , छन्ना मे कुटिका सुखा निवाता। वीतरागो. . . . . . वीतदोसो. . . . . . . वीतमोहो. . . अथ चे पत्थयसि पवस्स देवा' ति ॥ गाथाएँ ३२५-३२९