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सान।
जैसे पर्वत-गुफा में दो सिंह एक दूसरे को देखकर नाद करें, उसी प्रकार दोनों ज्ञानी एक दुसरे का अभिनन्दन करते हुए कहते है :--मार को सेनासहित जीत कर हम दोनों वीरों ने संग्राम विजय किया है ।
अपने प्रत्रजिन पुत्र को देखकर माता विलाप करती है । पुत्र उसे समझाता हुआ कहता है :--माता ! मृत पुत्र के लिए माता रो सकती है, अथवा उस पुत्र के लिए भी जो जीवित होते हुए भी उसे दिखाई नहीं देता, अनुपस्थित है। माता ! मैं तो जीवित हूँ और तु मुझे सामने देख भी रही है । फिर माता ! मेरे लिए तू रोदन क्यों करे ?
मतं वा अम्म रोदन्ति वो वा जीवं न दिस्सनि ।
जोवन्तं मं अम्म दिस्सन्ती कस्मा मं अम्म रोदमि ॥२ पर्वत-गुफाओं में ध्यान करते हुए अनेक भिक्षुओं के चित्र हमें 'थेरगाथा' में मिलते हैं। पांगुकूल धारी (गुदड़ी धारी) भिक्षु पर्वत-गुफा में सिंह के समान सुशोभित है--'सोभति पंसुकूलेन सीहो व गिरिगन्भरे'। इसी प्रकार भिक्ष की अचल, ध्यानस्थ अवस्था का वर्णन करते हुए कहा गया है : जिस प्रकार सुदृढ़ पर्वत निश्चल और सुप्रतिष्ठिन होता है, उसी प्रकार जिस भिक्षु का मोह नष्ट हो चुका है, वह अचल पर्वत के समान कम्पित नहीं होता।
यथापि पब्बतो सेलो अचलो सुपतिष्ठितो ।
एवं मोहक्खया भिक्खु पब्बतो' व न बेधति ॥४ इस प्रकार भिक्षु-जीवन के बाह्य और आन्तरिक रूप के अनेक चित्र हमें 'थेरगाथा' में मिलते हैं। उनके आन्तरिक अनुभवों और ध्यानी जीवन का पूरा परिचय हमें यहाँ मिलता है।
१. नन्दन्ति एवं सपा सोहा व गिरिगन्भरे ।
वीरा विजितसंगामा जेत्वा मारं सवाहनं ॥ गाथा १७७ २. गाथा ४४ ३. गाथा १०८१ ४. गाथा १०००