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मेत्तगू-माणव पुच्छा (मेत्तग) "हे भगवान् ! मैं तुम्हें पूछता हूँ, मुझे यह बनलाओ, तुम्हें में
ज्ञानी (वेदगू-वेदन) और भावितात्मा समझता हूँ। जो भी लोक
में अनेक प्रकार के दुःख है, वे कहाँ से आये है ? ' (भगवान्) “दुःख की इस उत्पनि को पूछते हो। प्रज्ञानुमार मैं उसे तुम्हें
कहता हूँ। तृष्णा के कारण ही लोक में अनेक प्रकार के दुःग्व उत्पन्न होते हैं।"
धोतक माण व पुच्छा (धोतक) "हे भगवान ! तुम्हे यह पूछता हूँ, महर्षे ! तुम्हारा वचन सुनना
चाहता हूँ। तुम्हारे नि?प को मन कर मैं अपने निर्वाण को
सीखंगा।" (भगवान्) "तो तत्पर हो. . . . .स्मृतिमान् हो, यहाँ से वचन सुन तुम अपने
निर्वाण को मीखो।" (घोतक) “मैं तुम्हें देव-मनुष्य-लोक में निलोभ होकर विहरने वाला ब्राह्मण
देखता हूँ। हे समन्तचक्षु ! ( चारों ओर आँखों वाले ) तुम्हे में
नमस्कार करता हूँ। हे शक ! मुझे वाद-विवाद से छड़ाओ।" (भगवान्) "हे धोतक ! लोक में मै किमी वाद-विवाद-परायण (कथंकी)
को छुड़ाने नहीं जाऊँगा। इस प्रकार श्रेष्ठ धर्म को जान कर तुम
इम ओघ (भव-सागर) को तर जाओगे।" (धोतक) "हे ब्रह्म ! करुणा कर विवेक-धर्म को मुझे उपदेश करो, जिसके
अनुसार मै यही शान्त और विमुक्त हो कर विचरूं।" (भगवान्) "धोतक ! इमी शरीर में प्रत्यक्ष धर्म को बतलाता हूँ, जिसे जान
कर, स्मरण कर, आचरण कर, तु लोक में अगान्ति से तर जायगा।"
कप्प-माणव पुच्छा (कप्प) "बड़ी भयानक बाढ़ में सरोवर के बीच में खड़े, मुझे तुम द्वीप
(गरण-स्थान) बतलाओ, जिससे यह संसार फिर न हो।"