________________
( १५० ) ७. वत्थ सत्त-मैले वस्त्र पर रंग नहीं चढ़ता। किन्तु साफ वस्त्र पर चढ़
जाता है। चित्त के निर्मल होने पर सुगति भी अनिवार्य है। वह नदियों के स्नानादि से प्राप्त नहीं होती। 'ब्राह्मण ! तू यदि झूठ नहीं बोलता, प्राणियों को नहीं मारता, बिना दिया लेता नहीं, तो गया जाकर क्या
करेगा, क्षुद्र जलाशय भी तेरे लिये गया है।" ८. सल्लेख-सुत्त--तप-विहार का उपदेश। ९. सम्मादिट्ठि-सुत्त--सम्यक् दृष्टि पर धर्मसेनापति सारिपुत्र का प्रवचन । १०. सति पट्ठान-सुत्त--चार स्मृति-प्रस्थानों का उपदेश । यही विषय दीघ
निकाय के महासतिपट्टान-सुत्त का भी है। केवल कुछ अंश वहाँ अधिक है।
(२) सीहनाद वग्ग ११. चूल सीहनाद-सुत्त--चार बातों में वौद्ध भिक्षुओं की अन्य धर्मावलम्बियों
से विशेषता। १२. महासीहनाद-सुत्त--सुनक्खत्त लिच्छविपुत्त यह कह कर भिक्षु-संघ को
छोड़कर चला गया है “श्रमण गोतम के पास आर्य ज्ञान-दर्शन की पराकाष्ठता नहीं है, उत्तर--मनुष्य धर्म नहीं है। वह केवल अपने ही चिन्तन से सोचे, अपनी प्रतिभा से जाने, तर्क से प्राप्त, धर्म का उपदेश करते हैं।" इसी प्रसंग को लेकर भगवान् बुद्ध और धर्मसेनापति सारिपुत्र में संलाप । तथागत के दस बल तथा चार वैशारद्यों का वर्णन । इसी प्रसंग में भगवान् ने अपनी पूर्व तपस्याओं का वर्णन भी किया है “सारिपुत्र ! यह मैरा रुक्षाचार था। पपडी पड़े अनेक वर्ष के मैल को शरीर में संचित किये रहता था. . .भीषण वन-खंड में प्रवेश कर विहरता था--मुर्दे की हड्डियों का सिरहाना बना श्मशान में शयन करता था---सारिपुत्र ! जब मैं पेट के चमड़े को पकड़ता तो पीठ के काँटे को ही पकड़ लेता था, पीठ के कांटे को पकड़ते समय पेट के चमड़े को ही पकड़ लेता था-इस दुप्कर तपस्या से भी मैं उत्तर मनुष्य-धर्म नहीं पा सका . . . . . .आज सारिपुत्र ! मेरी आयु अस्सी को पहुँच गई है. . . . . .सारिपुत्र ! अशन, पान, शयन को छोड़, मल-मूत्र-त्याग के समय को छोड़, तथागत की धर्म-देशना सदा अखंड ही चलती रहेगी।" बुद्ध-जीवनी की दृष्टि से यह सुत्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है।