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( १३५ ) दृष्टि-जाल भी, लोकोत्तर संग्राम-विजय भी।"१ मिथ्या-दृष्टियों को पकड़ने के लिये भगवान् ने ब्रह्मजाल-सुत्त का उपदेश दिया।
जिन मिथ्या दृष्टियों का विवरण ब्रह्म जाल सुत्त में दिया गया है, उनकी संख्या ६२ है। इनमें १८ मिथ्या धारणाएँ जीवन और जगत के आदि सम्बन्धी है और ४४ अन्त सम्बन्धी। इनमें पहली १८ मिथ्या धारणाओं को पाँच भागों में बाँटा गया है यथा (१) शाश्वतवाद (२) नित्यता-अनित्यतावाद (३) सान्त-अनन्तवाद (४) अमराविक्षेपवाद और (५) अकारणवाद । इनमें से प्रथम चार की सिद्धि में प्रत्येक में चार चार हेतु दिये गये हैं और अन्तिम सिद्धान्त (अकारणवाद) की सिद्धि में दो। इस प्रकार १८ हेतुओं से नानाश्रमण, ब्राह्मण और परिव्राजक प्राग्बुद्धकालीन भारत में आत्मा और लोक के आदि सम्बन्धी, (पूर्वान्त कल्पित) उपर्युक्त पाँच मतों का प्रख्यापन किया करते थे। इन्हीं को यहाँ मिथ्या दष्टियाँ कहा गया है। आत्मा और लोक के अन्त सम्बन्धी (अपरान्तकल्पिक) ४४ मिथ्या-धारणाएँ थीं। कुछ श्रमण, ब्राह्मण और परिव्राजक १६ हेतुओं के आधार पर मानते थे कि 'मरने के बाद भी आत्मा संज्ञी (होश वाला) रहता है, कुछ ८ हेतुओं के आधार पर मानते थे कि 'मरने के बाद आत्मा असंज्ञी हो जाता है' (अर्थात् वह होश वाला नहीं रहता) कुछ ७ हेतुओं के आधार पर मानते थे कि 'आत्मा का पूर्ण उच्छेद ही हो जाता है। ये उच्छेदवादी थे। कुछ ५ हेतुओं के आधार पर मानते थे कि इसी जन्म में निर्वाण या मोक्ष है। इस प्रकार इन परस्पर विरोधी ४४ हेतुओं से आत्मा और लोक के अन्त सम्बन्धी सिद्धान्त कल्पित किये जाते थे। यही ४४ अपरान्तकल्पिक मिथ्या दष्टियाँ थी। इस प्रकार कुल मिलकर ६२ परस्पर-विरोधिनी, मानसिक आयासों से पूर्ण, मिथ्यादृष्टियाँ भारतीय वायुमंडल में भगवान् बद्ध के उदय से पूर्व प्रचलित थीं, जिनका निदर्शन इस सुत्त में किया गया है।
ब्रह्मजाल सुत्त की मुख्य विषय-वस्तु उपर्युक्त ६२ मिथ्यादृष्टियों का विवरण ही है, किन्तु उसमें प्रमंगवश और भी बहुत सी बातें आ गई हैं। प्रारम्भ ही में हम
१. “को नामो अयं भन्ते धम्म परियायायोति" "तस्माति ह त्वं आनन्द इमं धम्म
परियायं अत्थजालं ति पि नं धारेहि, धम्मजालं ति पि नं धारेहि, ब्रह्मजालं ति पि नं धारेहि, दिठि जालं ति पि नं धारेहि, अनुत्तरो संगाम-विजयो ति पिनं धारेहि ।"