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उस त्रिपिटक को भी ले गये थे जिसके स्वरूप का अन्तिम निश्चय पाटलिपुत्र की संगीति में हो चुका था । लंका में 'महा-विहार' की स्थापना हुई और त्रिपिटक के अध्ययन का क्रम चलता रहा । परन्तु यह अध्ययन क्रम अभी कुछ और गताब्दियों तक केवल मौखिक परम्परा ( मुखपाठवसेन) में ही चलता रहा । वाद में लंका के राजा वट्टगामणि अभय के समय में प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्व में, जिस त्रिपिटक को महेन्द्र और अन्य भिक्षु अशोक और देवानंपिय तिम्स के समय में वहाँ ले गये थे, लेखबद्ध कर दिया गया ।" तव से वह उसी रूप में चला आ रहा है । महेन्द्र के लंका-गमन और वट्टगामणि के समय में त्रिपिटक के लेखबद्ध होने के समय के बीच में तीन और धर्म-संगीतियाँ क्रमशः देवानंपिय तिस्स, दृट्ठगांमणि और वट्टगामणि अभय नामक लंकाधियों के समयों में हुई । अतः पालि-साहित्य के विकास के इतिहास में उनका भी अवश्य एक स्थान है, यद्यपि पहली तीन संगीतियों की अपेक्षा वह बहुत गोण है । यह निश्चित है कि इन तीन संगीतियों में महेन्द्र द्वारा प्रचारित त्रिपिटक के स्वरूप में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया गया और वगामणि के समय में जिस त्रिपिटक को लेखन किया गया वह वही था जिसे महेन्द्र और अन्य भिक्षु वहाँ ले गये थे ।
इस प्रकार बुद्ध के परिनिर्वाण काल से लेकर प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्व तक पालि साहित्य के विकास को हमने देखा । इससे आगे पालि साहित्य के उस अंश के विकास की कहानी है जो प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्व तक अन्तिम रूप में सुनिश्चत और लिखित उपर्युक्त त्रिपिटक को आधार मान कर लिखा गया है । स्वभावतः यहाँ हम पालि-साहित्य के विस्तार और विभाजन के प्रश्न पर आते हैं ।
पालि - साहित्य का विस्तार - दो मोटे मोटे भागों में उसका वर्गीकरणपालि या पिटक साहित्य एवं अनुपालि या अनुपिटक साहित्य
विषय की दृष्टि से पालि साहित्य उतना विस्तृत और पूर्ण नहीं है, जितने संस्कृतादि अन्य साहित्य | अनेक प्रकार की ज्ञानशाखाओं पर उसमें साहित्य
१. दीपवंस २०२०-२१ ( ओल्डनबर्ग का संस्करण ) ; महावंस ३३| १०० - १०१ ( गायगर का संस्करण ) ( बम्बई विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित 'महावंस' के संस्करण में ३३ । २४७९-८० ) देखिये महावंश, पृष्ठ १७८-७९ ( भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद)