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आश्चर्य ५७ ६ वहुश्रुत-दूसरों की अपेक्षा अधिक श्रुत के ज्ञाता/उपाध्याय। ७ तपस्वी-उत्कृष्ट तप करने वाले मुनि।
इन सातो के प्रति वत्सलता धारण करना अर्थात् इनका यथोचित
सत्कार-सम्मान करना, गुणोत्कीर्तन करना। ८ वारवार ज्ञान-अगादि श्रुतों का उपयोग करना। ९ दर्शन-सम्यक्त्व की विशुद्धता। १० ज्ञानाधिक का विनय करना। ११ छह आवश्यक करना अर्थात् चारित्रपद का आराधन। १२ उत्तरगुणो और मूलगुणो का निरतिचार पालन करना। १३ क्षणलव अर्थात् क्षण-एक लव प्रमाण काल मे भी सवेग, भावना एव ध्यान का
सेवन करना। १४ तप करना। १५ त्याग करना अर्थात् दानादि धर्म का पालन करना। १६ नया-नया सूत्रार्थ का ज्ञान ग्रहण करना। १७ समाधि-गुरु आदि चतुर्विध सघ को साता उपजाना। १८ वैयावृत्य करना। १९ श्रुत की भक्ति करना और २० प्रवचन/शासन की प्रभावना करना। इसी को तत्त्वार्थ सूत्र मे १६ कारणो मे निहित कर दिया गया है।
"दर्शनविशुद्धिविनयसपन्नता शीलव्रतेप्वनतिचारोऽभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगसवेगा शक्तितस्त्यागतपसी सघसाधुसमाधिर्वयावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुत-प्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्यकृत्त्वम्या"
-तत्त्वार्थसूत्र-अ ६, स २३ १ दर्शन विशुद्धि का अर्थ है दीतराग के कहे हुए तत्त्वो पर निर्मल और दृढ़ रुचि। २ सानादि मोक्षमार्ग और उसके साधनों के प्रति योग्य रीति से दहुमान रखना
दिनयसपन्नता है। ३ अहिसा, सत्यादि मूलगुण रूप द्रत हैं और इन द्रतो के पालन में उपयोगी ऐसे जो
अभितह आदि दूसरे नियम है वे भील हैं, इन दोनों के पालन में कुछ भी प्रमाद न
करना यही लगतानतिचार है। ४ तरपपिण्पक शान मे सदा जारित रहन-यह अक्षय ज्ञानोपयोग है।