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५६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
भुवि का मतलब होता है पृथ्वी। हम रहते हैं पृथ्वी पर और परमात्मा है सिद्धक्षेत्र मे। सिद्ध कोई स्थान नही है सिद्ध स्थिति है। इस सिद्ध स्थिति को उपलब्ध करनेवाले जहाँ स्थिर हो गए वह क्षेत्र सिद्ध क्षेत्र है, जो इस पृथ्वी से सात राजुलोक दूर है। हमारी शक्ति नहीं कि इतने दूर रहे हुए स्वरूप को हम भीतर ला सके। सिद्धशिला मे रहे हुए सिद्ध भगवन्त को हम प्रतिदिन "नमो सिद्धाण" कहकर नमस्कार करते हैं। क्या हमारे नमस्कार उन तक पहुंचते हैं ? "अरिहते सरण पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि" कहकर हम सिद्ध की शरण स्वीकार करते हैं। कहाँ हैं वे सिद्ध जिनकी शरण को हम स्वीकार करते हैं ? यहाँ से जो सात राजु दूर हैं। जो न कभी हमे प्रत्यक्ष होते हैं। जिनसे न तो कभी मिलन होता है। जिनके साथ न कोई वार्तालाप होता है, न कोई सगोष्ठी होती है, लेकिन फिर भी हम हमेशा कहते चले जा रहे हैं कि सिद्ध की शरण मै स्वीकार करता हूँ। भूवि शब्द रखकर आचार्यश्री आत्मा का और परमात्मा का बाह्य Difference बता रहे है, लेकिन आगे चलकर ये वाह्य Difference की छोरो को तोड़ रहे हैं।
भेद-रेखाओ को तोड़ने के लिए महत्वपूर्ण शब्द है "भवत तुल्या भवन्ति"। इसमे "भवत तुल्या भवन्ति" का मतलब है आपके ही तुल्य-समान (प्रभुता को) प्राप्त करते हैं। इसमें बहुत बड़ी बात कह दी।आत्मा के चरम विकास का अभियान इस पंक्ति मे निहित है। स्वरूप के मिलन या दर्शन की ओर प्रयलशील साधक को उसी की उपलब्धि की आनन्दमयी अनुभूति एक बहुत बडी सफलता है।
में पहले ही कह चुकी हूँ कि महावीर ने कहा-यहाँ किसी की Monopoly (एकाधिकार) नहीं है। यह स्थिति सर्वाधिकार की स्थिति है। इसे कोई भी उपलब्ध कर सकता है। आगम में इस स्थिति के २० कारण बताये हैं।
अरिहत-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर-बहुस्सुए-तवस्सीसु। वच्छलयाय तेसि, अभिक्ख-णाणोवओगे य॥१॥ दसण-विणए आवस्सए य सीलव्वए निरइयारे। खणलव-तवच्चियाए, वेयावच्चे समाही य॥२॥ अपुव्वनाणगहणे, सुयभत्ती पवयणे पमावणया।
एएहिं कारणेहिं, तित्ययरत्त लहइ जीवो ॥३॥ १ अरिहत।
२ मिद्ध
३ प्रवचन-शुनसान। ८ गुरु-धर्मदेगक आचार्य। ५ म्यादा अर्यत मठ दर्ष की उम्रवालं जातियाविर, ममवायागादि के शाता
शुर-दर और दीम वर्ष की दीक्षा याले पर्यायावर, यह तीन प्रकार के ग्या मायु।