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श्रमण भक्ति परम्परा में आचार्य मानतुगरचित भक्तामर स्तोत्र का एक विशिष्टतम स्थान है। शताब्दियों से भक्तजनों का यह कण्ठाभरण रहा है और वे प्रात काल मे स्मरणीय स्तोत्रों मे मंगल पाठ करते आ रहे है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओ की सीमा से मुक्त यह स्तोत्र सर्वमान्य एव सम्मान्य है ।
अन्त साक्ष्य प्रमाणों के अभाव में कविवर आचार्य मानतुंग व इस स्तोत्र का समय निश्चित करना संभव नहीं है। श्रुति परम्परा से कई विद्वान इनका समय पालवी महाराज भोज का समय निर्धारित करते हैं, तो कई विहान महाकवि वाणमह के समय महाराजा हर्षवर्धन का समय मानते है तथा कई विद्वान इनका समय विक्रम की छठी शताब्दी के आस-पास का स्वीकृत करते हैं। उद्भट विद्वान सिद्धार्द गणि (जिनका समय दशवी शताब्दी निश्चित है) ने उपदेश -माला टीका "हेयोपादेया" में भक्तामर का एक पद्य उद्धृत किया है, इसमे निश्चित है कि इनका मत्ता काल नवमी शताब्दी के पश्चात का तो नहीं है, इससे पूर्व कभी भी हो ।
परम्परागत दृष्टि से स्तोत्र की पद्य संख्याओं में भी अन्तर है। कुछ विद्वान अड़तालीस पद्य मानते हैं और कुछ चौवालीम । अष्टप्रातिहा की दृष्टि से पद्म अड़तालीस ही होने चाहिए।
स्तोत्र की प्रसिद्धि इतनी रही है कि प्रमुख ज्ञान भंडारों मे कम से कम दस से लेकर पचास से भी अधिक हस्त प्रतियाँ प्राप्त होती है। इसकी स्वर्णाक्षरी एव सचित्र प्रतियाँ तथा काव्य-मंत्र-यत्र गर्भित प्रतिया भी प्राप्त है।
इसका व्यापक प्रसार और लेखको का अत्यन्त प्रिय स्तोत्र से अनेक मनीषियों ने इस पर प्रचुर मात्रा मे संस्कृत भाषा में टीकाएँ और जन भाषा में वालाववोध लिखे हैं जो निम्न हैं
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भक्तामर स्तोत्र टीका
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प्रकाशकीय
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गुणरलसूरि ( रस १४२६ )
कनककुशल ( रस १६३२)
अमरप्रभ-रि
शान्तिसूरि मेघविजयोपाध्याय (१८वी सदी)
रलचन्द्र