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समर्पण
आचार्य भगवन्त के चरणो मे जिन शासन के श्रुतधर । कलिकाल के प्रभुवर |
तुम्हारे चरणो मे नमस्कार
कर लो इसको तुम स्वीकार ।
क्योंकि तुम्हारा ही तुम्हें अर्पण है
तव आशीष का सवेदन है।
पूज्यवर !
सोचती हूँ
यह मानतुंग का कीर्तन है
या तुम्हारा निकेतन है।
लगता है - तुम प्रतिमूर्ति हो मानतुग की मेरे हृदय आकाश तरग की
तुम्हारा कीर्तन मेरा वतन है
तुम्हारा ही तुम्हें अर्पण है।
मेरे भावो को स्वीकार करो
प्रभु से मेरी मनुहार करो तुम्हारा आशीष नित-नूतन है तुम्हारा ही तुम्हें, अर्पण है। सच ही तुम
मेरे जीवन के वरदान हो
इस कृति की मुस्कान हो तुम्हारा आसन शासन सनातन है तुम्हारा ही तुम्हें अर्पण है।
आत्म- आनन्द दीक्षा - जन्म शताब्दी वर्ष
लुधियाना
(६)
- साध्वी दिव्या