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बन्धन ३३ । परमाला । अनादिकाल से विषय-कषाय के सिह मुझ पर (आत्मा पर) आक्रमण कर रहे हैं। ऐसी अवस्था मे हे विश्वजननी तू क्या चुपचाप देखती रहेगी और तेरा भक्तआत्मा क्या लाचार, विवश और मजबूर होकर इन विषय-कषायो का शिकार बनता रहगा? परिभ्रमण करता रहेगा? अर्थात् ऐसा नही हो सकता है। मा । तू तेरे शिशु को शीघ्र ही इस शिकारी से बचाकर परिभ्रमण से सर्वथा मुक्त कर। तुझ स्वरूप मे स्थिर कर।
इस श्लोक में प्रीति, शक्ति और भक्ति इन तीन शब्दो का अर्थ बडा महत्व रखता है। अनन्त शक्तिमान् भक्त विना परमात्मा के स्वय को शक्तिहीन मानता है। शक्ति का प्रयोग आत्मा के लिए प्रयुक्त है। भक्ति का प्रयोग परमात्मा के लिए प्रयुक्त है अत "तद मक्तिवशात्" तेरी भक्ति के प्रभाव से ऐसा शब्द प्रयुक्त है। और प्रीति शब्द मे माता-पुत्र के नह-सम्वन्ध द्वारा दोनो के लिए इसका प्रयोग किया है। यहाँ भी इस शब्द द्वारा आत्मा-परमात्मा क साधना-सम्बन्ध को दर्शाया गया है। वस्तुत आत्मा की मौलिक नायक कर्म रहित अवस्था ही परमात्म स्वरूप है। आत्मा जब अपने इस निर्विकार निर्विकल्प स्वरूप का ध्यान कर वीर्योल्लास प्रकट करती है, तब ससार के विषय-कषाय मे यह मुकादला कर सकती है। वधनों से मुक्त होती है। कर्मों से रहित होती है।
मौतर यदि वारूद भरा होगा, वाहर की हलकी सी चिनगारी भी विस्फोट कर सकती है। मीनार में विषय-कपाय जिसके नष्ट हो जाते हैं, उसे बाहर का विकारी पर्यावरण कैसे विकृत कर सकता है? इस प्रकार हे परमात्मा। तेरे प्रति रहा मेरा अनुराग ही मेरी मुक्ति का अभियान है।