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वैभव ११३ तिजयपहुत्त पयासय अठ्ठ-महापडिहेरजुत्ताणं---
इन अष्टमहाप्रातिहार्यों को परमात्मा की प्रमुख आराधना का प्रतीक मानकर इन्हें विशिष्ट महत्त्व दिया गया है।
इन आठ महाप्रतिहार्यों को क्रमश आठ महाऋद्धि के दाता या प्रतीक भी माना है। जैसे
१ धृति - धैर्य, २ मति- ३ कीर्ति - प्रतिष्ठा ४ कांति - सर्वत्रप्रियता, ५ बुद्धि-चातुर्य सम्पन्न ६ लक्ष्मी -अर्थ वैभव,७ मेधा -प्रज्ञा ८ विद्यासाधन - ज्ञान सम्बन्ध।
प्राचीन जैन मान्यता के अनुसार तीर्थकरों को केवलज्ञान उत्पन्न होते ही इन्द्रप्रतिहार आकर अशोकवृक्ष, चामर, छत्र आदि आठ प्रातिहार्यों का निर्माण करते हैं जो नियमित रूप से परमात्मा के साथ रहते हैं। पूर्णज्ञान स्थिति से सम्पन्न परमात्मा का स्तुतिगान करनेवाले आचार्यश्री भी आज इसे पूर्णाभिव्यक्ति देकर भक्तामर स्तोत्र को सजा रहे हैं। गहराई से इनका चिन्तन करने पर अनुभव होता है कि आचार्यश्री देवनिर्मित प्रातिहार्यों को लक्ष्य में रखकर अपने हृदय मे प्रतिष्ठित परमात्मा को नयी चुनौती दे रहे हैं। मैं न तो देव हू और न तो ऐसे प्रातिहार्यों का निर्माण करता हूँ। परतु मेरी तो समस्त चेतनाएँ आपको सदा मौन निमत्रण देती रही हैं। मेरी समस्त आत्मिक अभिव्यक्तियां अपने भावो के माध्यम मे आपका आह्वान करती रही है। भक्ति की चरम सीमा मे भावों का सयोजन पाकर इन देव-निर्मित पौद्गलिक प्रातिहार्यों के साथ प्रतिस्पर्धा मे उतर कर स्वीकृति को चुनौती दे रहे हैं
उच्चैरशोकतरु-सश्रितमुन्मयूख माभाति रूपममल भवतो नितान्तम्। स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त-तमो-वितान,
बिम्ब रवेरिव पयोधर पार्श्ववर्ति॥२८॥ उच्चै
- अत्यत ऊँचे अशोकतरुसश्रितम् - अशोक वृक्ष के आश्रय मे विराजमान उन्मयूखम्
ऊपर की ओर देदीप्यमान किरणों को बिखराने
वाला ऐसा भवत
आपका अमलम्-रूपम्
निर्मल रूप, उज्ज्वल रूप स्पष्टोल्लसत् किरणम् स्पष्ट रूप से ऊपर की ओर चमकती-दमकती
हुई दीप्तिमान किरणो वाला अस्ततमोवितानम्
नष्ट कर दिया है समस्त अन्धकार के जाल को जिसने ऐसे