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________________ निर्माण ७५ अभिव्यक्ति है। जगत के सर्व जीव स्वेच्छा से व्यवहार करना चाहते हैं, परतु प्रत्येक जीव की इच्छा पूर्ण नहीं हो पाती है। कार्य-कारण की विशेष शृखलाओं में आबद्ध आत्माए सर्वशक्तिसम्पन्न होने पर भी कर्मों से असमर्थ हैं। परतु, फिर भी परमात्मा की शरण ग्रहण करनेवाला अप्रतिबध हो जाता है। उसे सृष्टि के कर्म-कषायादि कोई भी विरुद्ध तत्त्व प्रतिबंधित नहीं कर पाते हैं। वे यथाशीघ्र अपने अन्तिम गन्तव्य मुक्तावस्था को उपलब्ध कर सकते हैं। इसे आचार्यश्री ने परमात्मा के गुणों से सिद्ध कर दिया। परमात्मा के गुणो ने परमात्मा की शरण ग्रहण की और फिर वे इस सृष्टि मे विचरने के लिये निकले। इस समय उन्हें यथेच्छ विचरण करते हुए कौन रोक सकता है? ये एक नाथ सश्रित-जिन्होने आप एक का ही आश्रय लिया है। ता यथेष्ट सचरत -उनको यथेच्छ विचरण करते हुए। क निवारयति-कौन रोक सकता है ? यह प्रश्न कर उन्होंने एक बहुत बड़ा समाधान प्रस्तुत किया कि परमात्मा के गुणो को कोई नहीं रोक सकता। अर्थात् वे इस सृष्टि में व्याप्त हैं। यथायोग्य भक्तात्मा इन गुणो को धारण करता है। तभी वह सच्चे अर्थ में परमात्मा की शरण ग्रहण करने मे सफल हो सकता है। दर्शन से वे ही सफल हैं जो परिवर्तन पाते हैं। कहा, कौन सा और कैसा परिवर्तन आवश्यक है और यह कैसे हो सकता है ? उसे हम ध्यान के माध्यम से "परिवर्तन" विषय का विश्लेषण करेंगे, और हमारे हृदय का भी परिवर्तन करेंगे।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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