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________________ मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र ॐकार बिन्दु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः। कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः॥ ___ यह श्लोक सबसे पहले कंठस्थ कराया। इसके बाद राजस्थान की पुरानी पाठशालाओं मे प्रारम्भिक छात्रों को "सिद्धो, वरण समामनाया" इस सूत्र से प्रारम्भ होने वाला १५-२० सूत्रों का एक समूह कठस्थ कराया। पाठशालाओं मे सिखाने वाले. अर्द्धदग्ध-शिक्षक ये सूत्र बहुत ही भ्रष्ट रूप में और अशुद्ध उच्चारण के साथ चित्र विचित्र भापा के कुछ असंबद्ध वाक्य मिलाकर सिखाते रहते थे; और उनका तात्पर्य कोई भी नहीं समझता था। . . वास्तव में यह सूत्र समूह सुप्रसिद्ध प्राचीन "कातन्त्र" नामक व्याकरण का प्रथम वर्णज्ञान परिचायक पाठ है । गुरुवर्य देवी हंस जी ने मुझे इन सूत्रो को शुद्ध रूप में सिखाये थे। ( राजस्थान पुरातन ग्रंथ माला मे मैंने इस प्राचीन एवं दुर्लभ व्याकरण ग्रन्थ को मूल रूप मे प्रकट कर दिया है। ) . - बाद में जैन धर्म का "नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाण" वाला प्राकृत भाषामय नमोकार मंत्र कंठस्थ कराया। इसी तरह गुरुजी में कुछ सस्कृत के अन्य श्लोक और कुछ प्राकृत के जैन स्तोत्र पाठ भी कठस्थ कराये। कुछ समय बाद उनके पास वर्णमाला की छपी हुई पहली किताव आ गई तो फिर मुझे अपने पास में बैठाकर धीरे धीरे उसके शब्दो का परिज्ञान' कराया। दो एक दिन में ही. मैंने उस छोटी सी पुस्तिका के सव शब्द कठस्थ कर लिये और मैंने इस प्रकार अक्षर-बोध प्राप्त किया । इस तरह जीवन के ११वें वर्ष मे मेरा साक्षर जीवन (अर्थात् अक्षर बोध प्राप्त जीवन काल ) प्रारम्भ हुआ। इसके पूर्व के बाल्यकाल के १० वर्ष सर्वथा निरक्षर जीवन के परिचायक रहे ...................
SR No.010613
Book TitleMere Divangat Mitro ke Kuch Patra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1972
Total Pages205
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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