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किंचित् प्राक्कथन
जयपुर
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साहित्यिक जीवन और
अपने दिवंगत मित्रों के ये कुछ कार्य के किंचित् परिचायक और संस्मरण सूचक हैं ।
मेरी साहित्यिक कार्य प्रवृत्ति का क्षेत्र सीमित रूप का रहा । अधिकतर मेरी रुचि प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन और प्रकाशन की रही । इतिहास और पुरातात्विक विषय मेरे मन को आकृष्ट करते रहे ।
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मैंने अपने जीवन के प्रारम्भ में किसी प्रकार की व्यवस्थित शिक्षा - प्राप्त नहीं की । न मुझे किसी स्कूल या पाठशाला में पढने का ही कोई संयोग मिला । न किसी शिक्षक या गुरु का ही कोई मार्ग दर्शन मिला । न मुझे अपनी मातृभाषा (जो ग्रामीण मेवाड़ी हो सकती है ) या अन्य किसी भाषा का ही ठीक ज्ञान मिला। देवनागरी अक्षरो का बोध भी मुझे किसी न किसी रूप मे, १० वर्ष की उम्र में, प्राप्त होने का अवसर मिला । लेकिन वर्णमाला की प्राथमिक पुस्तक पढने का योग नहीं मिला। वैसी पुस्तक के देखने का ही प्रारब्ध नही था तो पढ़ने का योग कैसे मिलता । अक्षरो की आकृति का ज्ञान तो उस युग की लकड़ी की पट्टी पर पानी में घोली हुई खड़िया मिट्टी से पुताई कर, भोर उस पर इंट को पीस कर बनाई गई लाल धूलि को बिछाकर, बंबूल की पतली टहनी से बनाये गये नुकीले बरतने से अक्षरों के आकार घोट घोट कर, प्राप्त कर लिया था पर वर्णमाला की छपी हुई पुस्तिका देखने को नहीं मिली थी ।
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यतिवर गुरु देवोहंसजी ने शब्दों के शुद्ध उच्चारण की दृष्टि से, प्रारम्भ ही में कुछ संस्कृत श्लोक जबानी ही पढ़ाने शुरु किये थे ।