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। प्रेम का लोक वडा पवित्र है। उसमे वासना के लिए तनिक भी स्थान नही । जहाँ वासना प्रारम्भ हुई कि प्रेम का पावन मार्ग समाप्त हो जाता है । फिर वह प्रेम न रह कर मोह की निम्न श्रेणी मे आ जाता है । जहाँ मोह है वहाँ पतन है । प्रेम पावन प्रकाश है, मोह गहन अन्धकार । प्रेम अमरत्व है, मोह मृत्यु । प्रम महान है मोह निम्न है। प्रेम आदरणीय एव स्पृहणीय है, मोह सर्वथा त्याज्य। प्रम प्रतिदान नही चाहता, जवकि मोह चाहता है। प्रेम परमात्मा से जोडने वाला है तो मोह तोड़ने वाला । प्रेम हृदय की वह लहर है जो जीवन को आनन्द से भर देती है, जबकि मोह जीवन को द्वन्द्व तथा दुखो के दलदल मे फंसा डालता है। एक तारक है तो एक मारक। एक ग्राह्य है तो एक त्याज्य। एक हमे हमारी आत्म वृत्तियो के समीप लाता है तो एक दूर धकेल देता है । एक हमे आत्म-केन्द्रित करता है तो एक हमे बाहर मे बिखेर देता है। इसलिए प्रेम स्तुत्य है समीचीन है। जीवन के लिए अमृत है ।
३६ / चिन्तन-कण