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[ राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर, जोधपुर ... ४८४. ५८६५
सिंहासन बत्तीसी आदि- ॥ श्री गणेशाय नमः ।। अथ स्यंघासन वतीसी भोज प्रबंध हितौ उपदेस कवि क्रस्नदाश कति लिपते ।
छैपा- प्रथम सुमरि गण इसनं गणनायक ।
विघ्नहरन मति राय काज सिधिकरण सहायक ।। येक दंत मय मंन अंत नहि पाव पाव सुमति गति । फरस हथ समरथ देव परतछ अमित गति ॥ कवि कस्नदास वंदत चरन, और सुमति दुस्तर तरन ।
रस सिंधु मौढ विक्रम चरित सु, करित दुरित दुर्गम हरन ॥ १ अन्त- दीनो वर विक्रमकों सोय, सारिवाहन तन दाहन होय ।।
तो लगि सो नृप आयो तहा, विक्रम वीर अंवि जहा ।। ४०
चंडी वाच तेरे हेत दह्यो तन आय.... विशेष- इसके पश्चात् पत्र रिक्त है।
२२-जैनस्तोत्र
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अन्तरिक्ष पार्श्वस्तव आदि- श्री अन्तरीक पार्श्वनाथ छन्द लिष्यते । दूहा- सारदपाय प्रणमां करी, आपो अविरल वांरिण।
पुरसादाणी पास जिरण, गास्युं गुण-मरिण-पांणि ।। १ अद्भुत कौतुक कलियुगे दीसै एह अदंभ ।
धरतीथी अधर रहै, सदा अंतरीक थिर थंभ ॥ २ अन्त- कीयो छंद आनंद वृद मनमाहै प्राणी।।
सांभलतां सुषकंद चंद जिम सीतल वाणी ॥ श्रीविजयदेव गुरुराज अाज तस गणधर राजै । श्रीविजयप्रभ सूरि नाम काम सम रूप विराजै ॥ गणधर दोय प्रणमी करि थुरिगयो पास असरण-सरण । भावविजय वाचक भरणे जयो देव जय जय करण ॥ ४६
इति श्री अंतरीक पार्श्वनाथ छंद संपूरण । ४३४६ अजित शांतिस्तव (सवालावबोध) त्रिपाठ प्रादि-अजि अंजि असघ भयं संति च संत सब गय पावं। .
जय गुरु संति गुण करे दोवि जिणवरे परिणवयामि ॥ १
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