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५५०.
सुपद भूमि संग्रामपुर, श्रीनृपवर जयसाहि ।
हि कवि मन सुप्रसन्न प्रति, मति रतिसों ग्रवगाह ॥ ६६ लों सुप सज्जन कला, मेरु धरावर धांम ।
जब
तव लों चिर जीवहु रसिक, पढत गुरगत गुंन नाम || ७० इति श्रीराजसभा - रंजन दोहा समाप्तं ।
संवत् १७६८ वर्षे मिति पोस वदि १४ शुक्रे लिपिकृतं श्रीरस्तु कल्याणमस्तु । राठोड नाहषांनरो छंद
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आदि - छंद राठोड नाहरपांनरी गाडरण माधोदासरो को ||
ग्रारज्या ॥ उप्पन्ना पुरसांगी उडा । पांणी पंछा पापर होडा । राकीया रद्दीस जोडा । नाहरपांन समप्प घोडा ॥ १ भाडंजी केवी मुगलांणी । पासा पेंग जिके पुरसाणी ।
वड पातां सुरण अवरल वाणी । रेवंत रोझ दीयै राजाणी || २ अन्त- कलस || बहस तेज बहु सफल बहुत मोला बहु भोयरण । धीरज तेज अनंत लोय दीप क्वहलोयरण ||
धड विसाल पैं करह गात उतंगह मैंगल |
पवंग वेग विसराल वाजि वीया वेगागल ||
वरहास वडा वड कवीयरगां त्यागी द्यणं हरते रवै । समपीया पांन राजांनकै कुंप करन्नह अभिनवें ॥
इतिनाहरषांन घोडांरा दाताररौ छंदः संपूरणं ॥
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[ राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर, जोधपुर
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विक्रमचरित्र ( हेमाणन्द रचित )
श्रादि - ||६० ॥ श्रीसरस्वत्यै नमः ॥ प्रणम्य देवदेवं च वीतरागसुरचितं ॥ लोकानां हि विनोदाय करिष्येहं कथामिमां ॥ १ नत्त्वा सरस्वती देवी स्वेताभरणभूषिता । पद्मपत्रविशालाक्षी नित्यं पद्मासने स्थिता ॥ २
अन्त - श्री विक्रमनें वेताल कथा कही चउवीस उदार ।
सोल छियाल भाद्रव मांस । हेमारांद कहे उल्हास || ३६ इति श्रीवेतालपचीसी २४ कथा |
दोहा - वलि विक्रम सीसम गयो, पाछो तिरण ही डाल । मडबंधी कांवइ कीयो, तव बोलै भूपाल ॥ १
विशेष- आागेका अंश पूर्ण है ।
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आदि - ||र्द० ॥ श्री सरस्वत्यै नमः ॥
विद्याविलास चोपाई
दूहा - सरसति नित ग्रापो सुमति, चित्त हित घरि प्रणमेव । जित तित थित थानक अचल, सोभित दह दिसि देवि ॥ १