________________
प्रस्तुत संस्करण नणसी, दयालदास और वाकीदास की ख्याते राजस्थानी भाषा की प्रथम कोटि की गद्य-रचनायें है। इतिहास की दृष्टि से भी वे अन्यान्य ख्यातो की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। मेरी बहुत दिनो मे इच्छा थी कि इन तीनो के सुसपादित सस्करण प्रकाशित किये जाय । इस सम्बन्ध में कार्य का प्रारम्भ भी मैने कर दिया था, पर वह पूरा नही हो सका। अव वांकीदास की त्यात का यह सस्करण मुनि श्री जिनविजयजी की कृपा से पाठको के सामने आ रहा है।
___ हर्ष की बात है कि बाकी दोनो ख्यातो का भी प्रकाशन-कार्य आरम्भ हो चुका है । नेगासी री स्यात श्री बदरीप्रसाद साकरिया द्वारा सपादित होकर राजस्थान पुरातत्त्व मन्दिर के ही तत्त्वावधान में मद्रित हो रही है। दयालदास की ख्यात का एक अश मेरे माननीय मित्र डा० दशरथ शर्मा तथा मेरे भूतपूर्व शिष्य श्री दीनानाथ खत्री द्वारा सपादित होकर प्रकाशित हो चुका है। श्री खत्री ने वाकी अश के बहुत बडे भाग को भी सपादित कर डाला है और आशा है कि सपूर्ण ग्रथ निकट भविप्य मे ही प्रकाश में आ जायगा ।
बाकीदास की ख्यात से मेरा परिचय डाक्टर तासीतोरी के सूचीपत्र से तथा श्री प्रोझाजी के उल्लेखो मे हुआ । जव मैने स्यात के सपादन का विचार प्रोमाजी पर प्रकट किया तो उन्होने तुरन्त उसकी एक हस्तप्रति, और उसकी अपनी प्रतिलिपि, दोनो मेरे हवाले कर दी।
अोझाजी की यह हस्तप्रति मारवाडी लिपि में पतले पीले कागज पर लिखी हुई है। उसे जोधपुर के सुप्रसिद्ध विद्वान स्वर्गीय मुशी देवीप्रसादजी ने उनको तय्यार करवाकर दी थी। उसी की प्रतिलिपि उन्होने अपने उपयोग के लिए देवनागरी लिपि मे करवाई थी। इस सस्करण का सपादन इसी प्रतिलिपि के आधार पर किया गया है। मूल हस्तप्रति से भी आवश्यकतानुसार सहायता ली गई है।
वाकीदास ने ख्यात की इन बातो का सग्रह बिना किसी क्रम के किया है । उनसे कोई शृखलाबद्ध वृतान्त नहीं बनता। एक ही व्यक्ति के सम्बन्ध की बातें अनेक भिन्न-भिन्न स्थानो पर आई है। कई-एक बातें पुनरावृत्त भी हुई है, अर्थात् दुवारा-तिवारा भी आ गई है। श्री प्रोभाजी के शब्दो में
"परन्तु उसमें कोई क्रम नही है। एक बात मालवे की है तो दूसरी गुजरात की और तीसरी कच्छ की। इस प्रकार एक महासागर सा ग्रथ है । एक राज के ताल्लुक की वाते सौ पचास जगह आ जाती है। पुरोहित हरिनारायएजी के नाम ओझाजी का पत्र।]
क्रम के इस अभाव के कारण ग्रथ की उपयोगिता बहुत कुछ नष्ट हो जाती है। किसी व्यक्ति के विषय में जानकारी प्राप्त करनी हो, उसे खोज निकालना सहज नही होता, इसके लिये नारा प्रथ टटोलना पडता है । श्रोझाजी ने वातो को क्रमवद्ध करना चाहा पर यह कार्य हो नहीं पाया। वे लिखते है
"उमको क्रमबद्ध करना बटे परिश्रम का काम है और अनेक पुस्तकें पास रखने से क्रमबद्ध हो सकता है। [उक्त पत्र ]"
वातो को क्रमवद्ध करने के लिए वस्तुत राजपूताने के समस्त राज्यो और ठिकानो के इनिहाग की जानकारी अनिवार्य है । राजपूताना ही नही, मराठा, सिख, मुसलमान, जैन प्राचार्य, जैन प्रापक यादि के इतिहान का ज्ञान भी वैमा ही आवश्यक है।