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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व
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अपने को साधु-जीवन की पवित्र परिधि से बाहर निकाल लें । सच्ची साधुता के विना साधु-वेप का कोई अर्थ नहीं है । प्रामाणिकता के साथ पुनः गृहस्थ दशा में लौट आना कोई बुराई नहीं । बुराई है, उस पद पर वने रहना, जिस पद के लिए व्यक्ति मूल में योग्य नहीं है । यदि आप स्वयं इतना साहस करें, तो ग्रापका यह साहस आपको भी ऊँचा उठाएगा, और ग्रापके धर्म तथा समाज को भी । और कोई कुछ भी कहे, मैं तो ग्रापके इस सत्साहस की प्रशंसा करूंगा । हजारहजार धन्यवाद करूंगा ।
वात जरा कड़वी हो गई है, किन्तु वर्तमान वातावरण इतनी कड़वी बात कहने को मजबूर करता है । आप और हम श्रमण हैं | आपका और मेरा गौरव कोई भिन्न-भिन्न नहीं है । मैं आपके चरणों में हजार-हजार वर्षो तक जनता को श्रद्धा के साथ झुकती देखना चाहता हूँ, और यह तभी सम्भव है, जव कि आप और हम अपने प्रतीत गौरव को वर्तमान में उतारें ।"
- 'जैन - प्रकाश' में प्रकाशित
संस्कृति और संयम के कलावर :
संस्कृति और संयम की उपलब्धि ही साधक की साधना का एक मात्र लक्ष्य है । भारतीय परम्परा एवं संस्कृति का समूचा विकास और उत्कर्ष ही सन्त संस्कृति का सच्चा इतिहास है । विचार, व्यवहार और वाणी के त्रिवेणी तट पर सन्त का भव्य भवन प्राणिमात्र के लिए निर्भय ग्राश्रम स्थल है । सन्त का पावन जीवन - काल व देश की सीमाओं से बहुत ऊँचा उठा हुआ - एक पवित्र व्यक्तित्व है । सन्त सदा स्वाश्रयी और स्वावलम्वी होता है । हमारे देश के प्रतिभावान् सन्तों के कारण ही हमारा प्रतीत-काल प्रत्यन्त उज्ज्वल, उत्प्रेरक एवं वलवर्धक रहा है । यह संस्कृति और संयम ही श्रमण परम्परा की आत्मा है । सन्त परम्परा का मुख्य आधार है-उसका संयम, उसका तप और उसका वैराग्य । अधिकतर संयम का सम्बन्ध सन्त से माना जाता है, और संस्कृति का कलाकार से । परन्तु मैं सन्त और कलाकार में किसी प्रकार का मौलिक भेद नहीं मानता हूँ, क्योंकि कलाकार शब्दों का शिल्पी है, तो सन्त जीवन का । कलाकार अपने मनोभावों