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व्यक्तित्व और कृतित्व
हो, किन्तु यह स्वच्छन्द नग्नता कभी सहन नहीं कर सकती । समाज का मस्तक आपके इन चर्मावनद्ध अस्थि चरणों में झुकने के लिए नहीं है, वह झुकता है - आपके त्याग, वैराग्य के पवित्र चरणों में । वेष अधिक दिनों तक जनता को भुलावे में नहीं रख सकता । जिनदास महत्तर के शब्दों में- 'केवल प्रोदन - मुण्ड साधु, धर्म के पवित्र नाम पर पलने वाले गन्दी मोरी के जहरीले कीटाणु हैं । उन्हें जल्दी से जल्दी समाप्त होना ही चाहिए । उनकी समानि धर्म, संघ एवं समाज के लिए मङ्गलमय होगी । वरदान रूप होगी ।'
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ग्राप में से कुछ साथी सम्भव है, अधिक विचार के साथ साबुती के पथ पर न आए हों ? सम्भव है, आप को साधु-जीवन की सही स्थिति न समझाई गई हो ? सम्भव है, शिष्यव्यामोह के कारण गुरु ने श्रापके प्रति अपना दायित्व ठीक-ठीक न निभाया हो ? सम्भव है, आप भावुकता के काल्पनिक वातावरण में ही घर से निकल पड़े हों और भोजन एवं वसन की तुच्छ समस्या पूर्तियों में ही उलझ कर रह गए हों ? कोई बात नहीं, ग्रव संभल कर चलिए । प्रलोभन की विघ्नबाधाओं ने टक्कर लेने के लिए सीना तानकर चलिए । अन्दर में से विकारों को बाहर न उभरने दीजिए। यदि कभी प्रसंगवश उभर भी ग्राएं, तो उन्हें वहीं कुचलकर समाप्त कर दीजिए। आप संघ के प्रकाशमान दीपक हैं । ग्रपका अस्तित्व अन्धकार में खोने के लिए नहीं,
पितु अन्धकार को खोने के लिए है । यदि कभी पहले भूलें हुई भी हों, तो उन पर शुद्ध भाव से पश्चात्ताप कीजिए। उनका यथोचित शास्त्रानुसार प्रायश्चित कीजिए । देखना - वह प्रायश्चित हो, प्रायश्चित का नाटक नहीं । ग्रन्दर में भूल पर भूल करते जाना और वाहर में प्रायश्चित पर प्रायश्चित लेते जाना - दम्भ है, माया है, वंचना है, बोला है। यह दम्भ साधक को गलाता है, और साथ ही नमाज को भी ।
आप यदि अपने विकारों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, गिर पड़ कर भी सवार हो जाते हैं, तब तो ठीक है । यदि ग्राप अपने मन पर अधिकार नहीं पा सकते, वासनाओं के दुष्प्रसंगों पर संभल नहीं
गाने वारवार नेतावनी मिलने पर भी आपकी दुर्बलता अपनी
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प्राय से बाज नहीं मानी तो ईमानदारी का तकाजा है कि आप