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बहुमुखी कृतित्व
१८१ हैं । आपकी लेखनी का चमत्कार समाज में सुप्रसिद्ध है । अस्तु, आपकी सुन्दर लेखनी का स्पर्श पाकर यह जीवन-चरित्र भी 'सोने में सुगन्ध' की कहावत को चरितार्थ कर रहा है।"
निशीथ भाष्य-प्रस्तुत महाग्रन्थ का सम्पादन कवि श्री जी ने किया है। इसमें मूल निशीथ-सूत्र, उसकी नियुक्ति, उसका भाष्य और उसकी चूर्णि भी सम्मिलित हैं। निस्सन्देह वर्तमान युग के साहित्य में यह सम्पादन अद्वितीय और वेजोड़ है। इस ग्रन्थ का सर्वत्र आदर और सत्कार हुआ है । प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रकाशन वर्तमान शताब्दी में सबसे वड़ा प्रकाशन है । यह ग्रन्थ चार भागों में परिसमाप्त हुआ है। स्वास्थ्य ठीक न होने पर भी कवि श्री जी ने इस ग्रन्थ को सर्व प्रकार से सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया है। निशीथ भाष्य के प्रथम भाग की भूमिका में कवि श्री जी ने सम्पादन के सम्बन्ध में उपस्थित होने वाली वाधाओं के विपय में लिखा है
___ "प्रस्तुत भीमकाय महाग्रन्थ का सम्पादन वस्तुतः एक भीम कार्य है। हमारी साधन-सीमाएँ. ऐसी नहीं थीं, कि हम इस जटिल कार्य का गुरुतर भार अपने ऊपर लेते । न तो हमारे पास उक्त ग्रन्थ की यथेष्ट विविध लिखित प्रतियाँ हैं। और जो प्राप्त हैं, वे भी शुद्ध नहीं हैं । अन्य तत्सम्बन्धित ग्रन्थों का भी अभाव है। प्राचीनतम दुरुह ग्रन्थों की संपादन-कला के अभिज्ञ कोई विशिष्ट विद्वान् भी निकटस्थ नहीं है। यदि इन सव में से कुछ भी अपने पास होता, तो हमारी स्थिति दूसरी ही होती?"
प्रस्तुत महाग्रन्थ के सम्पादन के समय और सम्पादन से पूर्व भी यह विचार किया गया था कि प्रस्तुत ग्रन्थ में कुछ बातें हमारी परम्परा से मेल नहीं खाती। कवि श्री जी ने इस सम्बन्ध में प्रथम भाग की भूमिका में स्पष्ट लिख दिया था कि
"भाष्य तथा चूणि की कुछ बातें अटपटी-सी हैं। अतः विचारशील पाठकों से अनुरोध है कि वे तथाभूत स्थलों का गम्भीरता से अध्ययन करें। इस प्रकार के प्रसंगों पर हंस-वृद्धि से काम लेना उपयुक्त होता है। प्राचीन प्राचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जो कुछ लिखा है, वह सब कुछ, सब किसी के लिए नहीं है, और सर्वत्र एवं सर्वदा के लिए भी नहीं है।"