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समीक्षा और समालोचना
समीक्षा और समालोचना साहित्य सर्जना का एक परम आवश्यक अंग है । विना समीक्षा एवं समालोचना के साहित्य की परिशुद्धि नहीं हो सकती । साहित्यकार जिस समय साहित्य की रचना करता है, उस समय बहुत से दोप ऐसे रह जाते हैं, जो उस समय उसकी दृष्टि में नहीं श्राते । समीक्षक और समालोचक ही उसकी कृतियों में गुण एवं दोपों का माप-दण्ड करता है । समालोचक की दृष्टि वड़ी पैनी होती है, कोई भी दोष उसकी दृष्टि से बच नहीं सकता । साहित्य को स्वस्थ, सुन्दर और उर्वर बनाने के लिए समीक्षक और समालोचकों की नितान्त आवश्यकता है ।
कवि श्री जी अपने युग के सफल कवि और सफल साहित्यकार ही नहीं, बल्कि सफल समीक्षक और समालोचक भी रहे है । उन्होंने साहित्य की गहरी समीक्षा और समालोचना की है । उनके द्वारा लिखित 'उत्सर्ग और अपवादमार्ग' निवन्ध में पाठक यह भली-भाँति देख सकते हैं कि उनकी समीक्षात्मक दृष्टि कितनी पैनी और कितनी सारग्राहिणी है । 'उत्सर्ग और अपवाद' जैसे गम्भीर विषय पर लिखना, कुछ आसान काम नहीं है । परन्तु कवि श्री जी ने इस गम्भीर विषय पर भी अपने पाण्डित्य के बल पर अधिकार - पूर्ण समालोचना की है । उसके कुछ उद्धरण मैं यहाँ पाठकों की जानकारी के लिए उपस्थित कर रहा हूँजैन - साधना - जैन-संस्कृति की साधना, ग्रात्मभाव की साधना है, मनोविकारों के विजय की साधना है । वीतराग प्ररूपित धर्म में