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व्यक्तित्व और कृतित्व
श्री उदयचन्द्र जी हैं, जो अपने पहले के नौवत नामधारी रूप में उदय । चन्द्र बनने के लिए यात्रा कर रहे हैं। अपनी गृह-गृहस्थी की मोह-माया और परिवार को अन्तिम वार, त्याग कर चल पड़े हैं--पूर्ण त्याग की उच्च भूमिका पर आरूढ़ होने के लिए।"
"पर्वत की दुर्गम घाटी में एक फूल खिलता है । सुगन्ध बिखरती है और आस-पास का वायुमण्डल महक उठता है। कोई ढिंढोरा नहीं, कोई विज्ञापन नहीं। परन्तु वह देखो, एक के बाद एक भौरों की टोलियाँ चली आ रही हैं । गुणों के कदरदान विना बुलाए ही आ पहुँचे।"
"हाँ, तो मनुष्य ! तू भी खिलने का प्रयल कर । जव तू खिलेगा और अपने सद्गुणों की सुगन्ध से समाज को महका देगा, तो प्रतिष्ठा करने वाले सज्जनों की भीड़ अपने-आप आकर घेर लेगी। तू काम कर, कभी इच्छा मत कर । तेरा महत्त्व काम करने में है, इच्छा करने में नहीं । 'कर्मण्येवाधिकारस्ते फलेषु कदाचन ।
___ "साधुता का मार्ग सरल नहीं है। धीर और वीर पुरुप ही इस मार्ग के सच्चे यात्री हो सकते हैं । जो मनुष्य कायर है, बुजदिल है, संकट की घड़ियों में चीख उठता है, वह साधुता के ऊँचे शिखर पर नहीं चढ़ सकता । वह साधू ही क्या, जो भयंकर दृश्यों को देखकर आँखों में आँसू ले आए।"