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बहुमुखी कृतित्व
१६५ आपका कहना था—'कोई भी मनुष्य जन्म से उच्च या नीच वनकर नहीं आता । जाति-भेद का कोई ऐसा स्वतंत्र चिन्ह नहीं है, जो मनुष्य के शरीर पर जन्म से ही लगा आता हो और उस पर से पृथक्पृथक् जात-पात का भान होता हो।'
ऊँच-नीच की व्यवस्था का वास्तविक सिद्धान्त मनुष्य के अपने भले-बुरे कर्मो पर निर्भर होता है। बुरा आचरण करने वाला उच्च कुलीन भी नीच है, और सदाचारी नीच कुलीन भी ऊँच है । काल्पनिक श्रेष्ठ जातियों का कोई मूल्य नहीं। जो मूल्य है, वह शुद्ध आचार और शुद्ध विचार का है। मनुष्य अपने भाग्य का सृष्टा स्वयं है। वह इधर नीचे की ओर गिरे तो मनुष्य से राक्षस हो सकता है और उधर ऊपर की ओर चढ़े तो देव, महादेव, परमेश्वर हो सकता है। मुक्ति का द्वार मनुष्य-मात्र के लिए खुला हुआ है—ऊँच के लिए भी, नीच के लिए भी।
किसी भी मनुष्य को जात-पाँत के भूठे भ्रम में आकर घृणा की दृष्टि से न देखा जाए । मनुष्य किसी भी जाति का हो, किसी भी देश का हो, वह मानव-मात्र का जाति-वन्धु है। उसे सब तरह से सुखसुविधा पहुँचाना, उसका यथोचित आदर-सम्मान करना-प्रत्येक मनुष्य का मनुप्यता से नाम पर सर्व-प्रधान कर्तव्य है।
__भगवान् उपदेश देकर ही रह गए हों, यह वात नहीं। उन्होंने जो कुछ कहा, उसे आचरण में लाकर समाज में अदम्य कान्ति की भावना भी पैदा की।
आर्द्रकुमार जैसे आर्येतर जाति के युवकों को उन्होंने अपने मुनि-संघ में दीक्षा दी। हरिकेशी जैसे चाण्डाल-जातीय मुमुक्षत्रों को अपने भिक्षु-संघ में वही स्थान दिया, जो ब्राह्मण श्रेष्ठ गौतम को मिला हुआ था। इतना ही नहीं, अपने धर्म-प्रवचनों में यथावसर इन हरिजन सन्तों की मुक्त कंठ से प्रशंसा भी करते थे-"प्रत्यक्ष में जो कुछ भी विशेषता है, वह त्याग-वैराग्य आदि सद्गुणों की ही है। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि उच्च वर्णो या जातियों की विशेषता के लिए यहाँ अणुमात्र भी स्थान नहीं है। इन निम्न जातीय सन्तों को देखो, अपने