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व्यक्तित्व और कृतित्व __ "भगवन् ! मैं और दलील ? मैं कुछ नहीं जानता। मैं तो मात्र यही जान पाया हूँ कि मैं आपका तुच्छ सेवक हूँ, सेवा में रहूँगा ही।"
"आखिर, इससे लाभ ?"
"भगवन् ! लाभ की क्या पूछते हैं ? इस लाभ का तो कुछ अन्त ही नहीं। तुच्छ सेवक को सेवा का लाभ मिलेगा, पामर आत्मा पवित्र हो जाएगी।"
___"यह तो तुम अपने लाभ की बात कह रहे हो ! मैं अपना पूछता हूँ ?"
"भगवन्, सेवक को सेवा का लाभ मिले, यह भी तो आपका ही लाभ है। क्या ही अच्छा हो प्रभो, कि कोई आपको व्यर्थ ही न सताए और आप सुख-पूर्वक साधना करते हुए कैवल्य लाभ कर सकें?"
"इन्द्र, यह तुम्हारी धारणा सर्वथा मिथ्या है !" "भगवन्, कैसे ?"
"साधक की साधना अपने बल-बूते पर ही सफल हो सकती है । कोई भी साधक आज तक किसी देव, इन्द्र अथवा चक्रवर्ती आद की सहायता के वल पर न सिद्ध (पूर्ण परमात्मा) हो सका है, न अव हो सकता है और न भविप्य में हो सकेगा। सहायता लेने का अर्थ है अपने-आप को पंगु वना लेना, सुविधा का गुलाम बना लेना । 'सुख-पूर्वक साधना'-यह शब्द साहस-हीन हृदय की उपज है । सुख और साधना का तो परस्पर शाश्वत वैर है।"
देवेन्द्र गद्गद् होकर प्रभु के चरणों में गिर जाता है । साथ रहने के लिए गिड़गिड़ाता है। शत-शत बार प्रार्थना करता है। परन्तु महावीर हर वार दृढ़ता के साथ 'नकार' में उत्तर देते हैं। यह है-"भिक्षजीवन का महान् आदर्श !"--'एगो चरे खग्ग विसाण कप्पो'
"भगवान् महावीर ने अपने धर्म-प्रवचनों में जातिवाद की खूब खबर ली। अखंड मानव-समाज को छिन्न-भिन्न कर देने वाली जात-पात की कुव्यवस्था के प्रति आप प्रारम्भ से ही विरोध की दृष्टि रखते थे।"