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पुक्खरवरदीवड्ढे । [ऐसे ] 'संजमे' संयम में 'सया' सदा ‘नंदी' वृद्धि होती है [तथा ] 'जत्थ' जिस सिद्धान्त में 'लोगो' ज्ञान [और ] 'तेलुक्कमच्चासुरं' मनुष्य असुरादि तीन लोकरूप 'इणं' यह 'जगं' जगत् 'पइट्ठिओ' प्रतिष्ठित है । [ वह ] सासओ' शाश्वत 'धम्मो' धर्म-श्रुतधर्म 'विजयओ' विजय-प्राप्ति द्वारा 'वड्ढउ' वृद्धि प्राप्त करे [और इस से ] 'धम्मुत्तरं' चारित्र-धर्म भी 'वड्ढउ' वृद्धि प्राप्त करे ॥४॥
भावार्थ-मैं श्रुत धर्म को वन्दन करता हूँ; क्यों कि यह अज्ञानरूप अन्धकार को नष्ट करता है, इस की पूजा नृपगण तथा देवगण तक ने की है, यह सब को मर्यादा में रखता है
और इस ने अपने आश्रितों के मोह जाल को तोड़ दिया है ॥२॥ ___ जो जन्म जरा मरण और शोक का नाश करने वाला है जिस के आलम्बन से मोक्ष का अपरिमित सुख प्राप्त किया जा सकता है, और देवों, दानवों तथा नरपतियों में जिस की पूजा की है ऐसे श्रुतधर्म को पाकर कौन बुद्धिमान् गाफिल रहेगा ? कोई भी नहीं ॥३॥
जिस का बहुमान किन्नरों, नागकुमारों, सुवर्णकुमारों और देवों तक ने यथार्थ भक्ति पूर्वक किया है, ऐसे संयम की वृद्धि जिन-कथित सिद्धान्त से ही होती है । सब प्रकार का ज्ञान भी ध्वज में होता है । वर्ण प्रियङ्ग वृक्ष के समान है। (बृहत्संग्रहणी गा. ५८, ६१-६२)
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