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इस गुण का अनुकरण करना चाहिए । बाबूजी ने मुझ से अपनी यह सदिच्छा प्रगट की कि यह हिन्दी-अर्थ-सहित 'देवसि-राइ प्रतिक्रमण' तथा 'पञ्च प्रतिक्रमण' हमारी ओर से सब पाठकों के लिये निर्मूल्य सुलभ कर दिया जाय । उन्हों ने इन दोनों पुस्तकों का सारा खर्च देने की उदारता दिखाई और यह भी इच्छा प्रदर्शित की कि खर्च की परवाह न करके कागज, छपाई, जिल्द आदि से पुस्तक को रोचक बनाने का शक्तिभर प्रयत्न किया जाय । मैं ने भी बाबूजी की बात को लाभदायक समझ कर मान लिया । तदनुसार यह पुस्तक पाठकों के कर-कमलों में उपस्थित की जाती है।
जैन समाज में प्रतिक्रमण एक ऐसी महत्त्व की वस्तु है, जैसे कि वादक समाज में सन्ध्या व गायत्री । मारवाड, मेवाड, मालवा, मध्यप्रान्त, युक्तप्रान्त, पंजाब, बिहार, बंगाल आदि अनेक भागों के जैन प्रायः हिन्दी-भाषा बोलने, लिखने तथा समझने वाले हैं। गुजरात, दक्षिण आदि में भी हिन्दी-भाषा की सर्व-प्रियता है । तो भी हिन्दी-अर्थ-सहित प्रतिक्रमण आज तक ऐसा कहीं से प्रगट नहीं हुआ था, जैसा कि चाहिए । इस लिये 'मण्डल' ने इसे तैयार कराने की चेष्टा की । पुस्तक करीब दो साल से छपाने के लायक तैयार भी हो गई थी, परन्तु प्रेस की असविधा, कार्यकर्ताओं की कमी, मनमानी कागज आदि की अनुपलब्धि आदि अनेक अनिवार्य कठिनाइयों के कारण प्रकाशित होने में इतना आशातीत विलम्ब हो गया है । जब तक घर में अनाज न आ जाय, तब तक किसान का परिश्रम आशा के गर्भ में छिपा रहता है । पुस्तक-प्रकाशक-संस्थाओं का भी यही हाल है।