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प्रतिक्रमण सूत्र ।
नागकुमारादि भुवनपतियों का लोक और मध्यम लोक यानि इस मनुष्य लोक में जितनी जिन-प्रतिमाएँ हैं उन सब को मैं यहां अपने स्थान में रहा हुआ वन्दन करता हूँ ॥१॥
१५-जावंत केवि साहू सूत्र ।
* जावंत के वि साहू, भरहेरवय-महाविदेहे अ। सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंड-विरयाणं ॥१॥
अन्वयार्थ—'भरह' भरत, ‘एरवय' ऐवत 'अ' और 'महाविदेहे' महाविदह क्षेत्र में 'जावंत' जितने [और ] 'के वि' जो कोई ‘साहू' साधु हो ‘तिविहेण' त्रि-करणपूर्वक ‘तिदंडविरयाण' तीन दण्ड से विरत 'तेसिं' उन 'सव्वेसिं' सभों को [मैं ] 'पणओं' प्रणत हूँ। ॥१॥
भावार्थ-सर्व-साधु-स्तुति]। जो तीन दण्ड से त्रि-करणपूर्वक अलग हुए हैं अर्थात् मन, वचन, काया के अशुभ व्यापार को न स्वयं करते हैं, न दूसरों से करवाते हैं और न करते हुए को अच्छा समझते हैं उन सब साधुओं को मैं नमन करता हूँ ॥१॥
* यावन्तः केऽपि साधवः भरतैरवतमहाविदेहे च । सर्वेभ्यस्तेभ्यः प्रणतः त्रिविधने त्रिदण्डविरतेभ्यः॥