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नमुत्थुणं सूत्र ।
[ बन्धन से ] स्वयं छुटे हुए दूसरों को छुडाने वाले, ' सव्वन्नूणं सर्वज्ञ, ' सव्वदरिसीणं ' सर्वदर्शी [ तथा ] ' सिवं ' निरुपद्रव,
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अयलं ' स्थिर, ‘ अरुअं ' रोग-रहित, ' अणंतं ' अन्त-रहित, ' अक्खयं ' अक्षय, ' अव्वाबाहं ' बाधा रहित, ' अपुणरावित्ति पुनरागमन रहित [ ऐसे ] ' सिद्धि गइ नामधेयं ठाणं सिद्धिगति नामक स्थान को अर्थात् मोक्ष को संपत्ताणं' प्राप्त करने
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'नमो' नमस्कार हो ' जिअभयाणं ' भय को जीतने वाले , जिणागं ' जिन भगवान् को || जे अ अ सिद्धा, जे अ भविस्संतिणागए काले । संप अमाणा, सव्वे तिविहेण वंदामि ॥ १ ॥
अन्वयार्थ – ' जे ' जो ' सिद्धा ' सिद्ध ' अईआ ' भूतकाल में हो चुके हैं, ' जे ' जो ' अणागए ' भविष्यत् 'काले ' कालमें ' भविस्संति ' होंगे ' अ ' और [ जो ] ' संपइ ' वर्तमान काल में ' वट्टमाणा' विद्यमान हैं ' सव्वे ' उन सब को ' तिविहेण ' तीन प्रकार से अर्थात् मन वचन काया से • वंदामि वन्दन करता हूँ ॥ १ ॥
भावार्थ — अरिहंतों को मेरा नमस्कार हो; जो अरिहंत, भगवान् अर्थात् ज्ञानवान् हैं, धर्म की आदि करने वाले हैं, साधु साध्वी श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना करने वाले हैं, दूसरे के उपदेश के सिवाय ही बोध को प्राप्त हुए हैं, सब
ये च अतीताः सिद्धाः ये च भविष्यन्ति अनागते काले । सम्प्रति च वर्तमानाः सर्वान् त्रिविधेन वन्दे ॥ १ ॥