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तीर्थ-वन्दना। १६९ को जीतना, चारित्र लेने का भाव रखना, पुस्तकें लिखना-लिखाना और शासन की सच्ची महत्ता प्रकट कर उसका प्रभाव फैलाना, ये सब श्रावक के कर्तव्य हैं । इस लिये इन्हें सद्गुरु के उपदेशानुसार जानना तथा करना चाहिये ॥२-५॥
४८-तीर्थ-वन्दना। सकल तीर्थ वंदू कर जोड़, जिनवरनामे मंगल कोड़। पहले स्वर्गे लाख बत्रीश, जिनवर चैत्य नमुं निशदिश ॥१॥ बीजे लाख अट्टाविश कयां, बीजे बार लाख सदगां। . चौथे स्वर्गे अड लख धार, पांचमे वंदु लाख ज चार ॥२॥ छठे स्वर्ग सहस पचास, सातमे चालिश सहस प्रासाद । आठमें स्वर्गे छः हजार, नव दशमे वंदु शत चार ॥३॥ अग्यार वारमें त्रणसें सार, नवग्रैवेके त्रणसें अढार । पांच अनुत्तर सर्वे मली, लाख चोराशी अधिकां वली ॥४॥ सहस सत्ताणु त्रेविस सार, जिनवर भवन तणों अधिकार। लांबां सो जोजन विस्तार, पचास उचां बोहोंतेर धार ॥५॥ एक सो एशी बिंबपरिमाण, सभासहित एक चैत्ये जाण । सो कोड बावन कोड़ संभाल, लाख चोराणु सहस चोंआल।६। सातसें उपर साठ विशाल, सवि बिंब प्रणमुं त्रण काल। सात कोडने वोहोंतर लाख, भवनपतिमां देवल भाख ॥७॥ एक सो एशी बिंब प्रमाण, एक एक चैत्ये संख्या जाण । तेरसे कोड नेव्याशी कोड, साठ लाख वंदुं कर जोड़ ॥८॥