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________________ १२२ प्रतिक्रमण सूत्र | प्रकार की है, परन्तु 'पडिकमणकाले' प्रतिक्रमण के समय 'न संभरिआ' याद न आई 'य' इस से 'मूलगुण' मूलगुण में और 'उत्तरगुणे' उत्तरगुण में दूषण रह गया 'तं' उसकी 'निंदे' निन्दा करता हूँ 'च' तथा ' गरिहामि' गर्दा करता हूँ ||४२ ॥ भावार्थ --मूलगुण और उत्तरगुण के विषय में लगे हुए अतिचारों की आलोचना शास्त्र में अनेक प्रकार की वर्णित है । उसमें से प्रतिक्रमण करते समय जो कोई याद न आई हो, उस की इस गाथा में निन्दा की गई है ॥ ४२ ॥ * तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स अन्भुओिमि आरा, हणाए विरओमि विराहणाए । तिविहेण पडिकतो, वंदामि जिणे चउव्वीस || ४३॥ अन्वयार्थ---'केवलि' केवलि के 'पन्नत्तस्स' कहे हुए 'तम्स' उस 'धम्मस्स' धर्म की - श्रावक - धर्म की - ' आराहणाए' आराधना करने के लिए 'अओिमि' सावधान हुआ हूँ [ और उसकी ] 'विराहणाए' विराधना से 'विरओमि' हटा हूँ । 'तिविहेण' तीन प्रकार से मन, वचन, काय से - 'डिक्कंतो' निवृत्त होकर 'चउव्वीसं ' चौबीस 'जिणे' जिनेश्वरों को 'वंदामि' वन्दन करता हूँ ॥४३॥ भावार्थ---- मैं केवलि - कथित श्रावक - धर्म की आराधना के लिये तैयार हुआ हूँ और उसकी विराधना से विरत हुआ हूँ। मैं * तस्य धर्मस्य केवलि - प्रज्ञप्तस्य अभ्युत्थितोऽस्मि आराधनायै विरतोऽस्मि विराधनायाः । त्रिविधेन प्रतिक्रान्तो, वन्दे जिनाँश्चतुर्विंशतिम् ॥४३॥
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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