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वंदित्त सूत्र ।
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भावार्थ--जो साधु ज्ञानादि गुण में रत हैं या जो वस्त्रपात्र आदि उपधि वाले हैं, वे सुखी कहलाते हैं । जो व्याधि से पीड़ित हैं, तपस्या से खिन्न हैं या वस्त्र-पात्र आदि उपधि से विहीन हैं, वे दुःखी कहे जाते हैं। जो गुरु की निश्रा से उनकी
आज्ञा के अनुसार-वर्तते हैं, वे साधु अस्वयत कहलाते हैं। जो संयम-हीन हैं, वे असंयत कहे जाते हैं । ऐसे सुखी, दुःखी, अस्वयत और असंयत साधुओं पर यह व्याक्त मेरा सम्बन्धी है, यह कुलीन है या यह प्रतिष्ठित है इत्यादि प्रकार के ममत्वभाव से अर्थात् राग-वश हो कर अनुकम्पा करना तथा यह कंगाल है, यह जाति-हीन है, यह घिनौना है, इस लिये इसे जो कुछ देना हो दे कर जल्दी निकाल दो, इत्यादि प्रकार के वृणाव्यञ्जक-भाव से अर्थात् द्वेष-वश हो कर अनुकम्पा करना । इसकी इस गाथा में आलोचना की गई है ॥३१॥
* साहसु संविभागो, न कओ तवचरणकरणजुत्तेमु ।
संते फासुअदाणे, तं निंदे तं च गरिहामि ॥३२॥
अन्वयार्थ----'दाणे' देने योग्य अन्न आदि ‘फामुअ' प्रासुक-आचित्त 'सते' होने पर भी 'तव' तप और 'चरणकरण' चरण-करण से 'जुत्तेसु' युक्त 'साहूसु' साधुओं का 'संविभागो' आतिथ्य 'न कओ' न किया 'तं' उसकी 'निंदे' निंदा करता हूँ 'च' और 'गरिहामि' गहीं करता हूँ॥३२॥
* साधुसु संविभागो, न कृतस्तपश्चरणकरणयुक्तषु । सति प्रामुकदाने, तनिन्दामि तच्च गर्हे ॥३२॥