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वंदित सूत्र ।
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अन्वयार्थ – ' इत्थं' इस 'थूलग' स्थूल 'पाणाइवायविरईओ' प्राणातिपात विरतिरूप 'पढ' पहले 'अणुव्वयम्मि अणुव्रत के के विषय में ' पमायप्पसंगेणं' प्रमाद के प्रसङ्ग से 'अप्पसत्थ' अप्रशस्त ‘आयरिअं' आचरण किया हो; [ जैसे ] 'वह' वध - ताड़ना, 'बंध' बन्धन, 'छविच्छेए' अङ्गच्छेद, 'अइभारे' बहुत बोझा लादना, 'भत्तपाणवुच्छेए' खाने पीने में रुकावट डालना; [इन] 'पढमवयस्स' पहले व्रत के 'अइआरे' अतिचारों के कारण जो कुछ 'देसिअं' दिन में [ दूषण लगा हो उस ] 'सव्वं' सब से 'पडिक्कमे ' निवृत्त होता हूँ ॥ ९ ॥ १० ॥
भावार्थ-जीव सूक्ष्म और स्थूल दो प्रकार के हैं। उन सब की हिंसा से गृहस्थ श्रावक निवृत्त नहीं हो सकता । उसको अपने धन्धे में सूक्ष्म ( स्थावर ) जीवों की हिंसा लग ही जाती है, इसलिये वह स्थूल ( त्रस ) जीवों का पच्चक्खाण करता है। त्रस में भी जो अपराधी हों, जैसे चोर हत्यारे आदि उनकी हिंसा का पचक्खाण गृहस्थ नहीं कर सकता; इस कारण वह निरपराध त्रस जीवों की ही हिंसा का पच्चक्खाण करता है । निरपराध त्रस जीवों की हिंसा भी संकल्प और आरम्भ दो तरह से होती है । इसमें आरम्भजन्य हिंसा, जो खेती व्यापार आदि धन्धे में
यव्वा, तंजहा - बंधे बहे छविच्छेए अइभारे भत्तपाणवुच्छेए ।
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[आवश्यक सूत्र, पृष्ठ ८१८ ]
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