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प्रतिक्रमण सूत्र । अन्वयार्थ–'कुसलादिठे' तीर्थङ्कर या केवली के कहे हुए 'सभिंतर-बाहिरे' आभ्यन्तर तथा बाह्य मिला कर 'बारसविहम्मि' बारह प्रकार के 'तवे' तप के विषय में 'अगिलाई' ग्लानि-खेद-न करना [ तथा ] ' अणाजीवी' आजीविका न चलाना 'सो' वह ' तवायारो' तपआचार 'नायब्वो' जानना चाहिये ॥५॥
भावार्थ-तीर्थङ्करों ने तप के छह आभ्यन्तर और छह बाब इस प्रकार कुल बारह भेद कहे हैं । इनमें से किसी प्रकार का तप करने में कायर न होना या तप से आजीविका न चलाना मर्थात् केवल मूर्छा-त्याग के लिये तप करना तपआचार है ॥५॥ * अणसणमूणोअरिया, वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ। काय-किलेसो संली-गया य वज्झो तवो होइ ॥६॥
अन्वयार्थ–'अणसणं' अनशन 'ऊणोअरिया' ऊनोदरता 'वित्तीसंखेवण' वृत्तिसंक्षेप 'रसच्चाओ' रस-त्याग 'कायकिलेसो' कायक्लेश 'य' और 'सलीणया' संलीनता 'बज्झो' बाब 'तो' तप 'होइ' है ॥६॥
भावार्थ-बाह्य तप के नाम और स्वरूप इस तरह हैं:१-जैसे जैन शास्त्र में 'कुशल' शब्द का सर्वत्र ऐसा अर्थ किया गया है। वैसे ही योगदर्शन में उसका अर्थ सर्वज्ञ या चरमशरीरी व क्षीणम किया हुआ मिलता है । [योगदर्शन के पाद २ सूत्र ४ तथा २७ का भाष्य ।)
* अनशनमूनोदरता, वृत्तिसंक्षेपणं रसत्यागः । कायक्लेशः संलीनता च बाह्य तपो भवति ॥६॥