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राजस्थानी हस्तलिखित ग्रन्थ सूचि, भाग-१ ]
[ १३३ लोकाना हि विनोदाय करिप्येह कथामिमा ॥ १ नन्वा सरस्वती देवी स्वेताभरणभूषिता ।।
पद्मपत्रविसालाक्षी नित्य पद्मासने स्थिता ॥ २ अन्त- श्री विक्रमने बेताल कथा कही चउवीस उदार ।
मोल छियाल भाद्रव माम । हेमाणद कहै उल्हास ।। ३९
इति श्रीवेतालपचीसी २४ कथा । दोहा- बलि विक्रम सीसम गयो, पाछो तिण ही डाल ।
मडबधी काधइ कीयो, तब बोल भूपाल ॥१
प्रागेका अश अपूर्ण है। १६१२ २०१६ विक्रमसेन चोपाई (परमसागरप्रणीत)*
आदि॥द०॥ दहा- परम जाति प्रकामकर, पूरण परम उल्लाम।
प्रणमु परमानदस्, परम सषेसर पास ।। १ चरममरीरी चरम जिन, गामन नाह सद्धिर ।
परम प्रेम पद पुजस्या, जगवल भजि न वीर ।। २ अन्त- ता लगे ए चोपइ थिर रहयों, जा लग सूरज चदा ।
राग धन्यासी ढाल चोमट्ठमी, परममागर प्राणदा रे ।। १३ सर्व गाथा १३४७ छे इती श्रीविक्रमादित्य लीलावतीसूत विक्रमसेन चोपई मपूर्ण । १६१३ ३८६८ विक्रमसेन चोपाई (मानसागररचित) आदि- ॥०॥ श्रीवीतरागाय नम ॥
मुपदाता समरो, पूरण परम उलास । सानिध करज्यो माहिबा, अधिक फलै मुझ पास ॥१ सारद चद समो वडो, वदन अनोपम जाश।
सा सारद सुप्रसन्न हूवो, द्यो मुझ वचन विलाश । अन्त- ढाल बावनमी जो मे गाइ मानसागर सुषदाइ जी।
दीन २ चढत जोत सवाइ दीन २ दोलत पाइ जी ॥वी १३॥
इति श्रीविक्रमसेन नरिंदस्य चौपी सपूर्ण समाप्ता । स० १८२८ वरषे । १६२७ ३६५२
विद्याविलास चोपाई आदि- दि०॥ श्रीजिनस्याय नम ॥
श्रीजिनवरमुखवासिनी, प्रणम् सरसति माय ।
कवियण वयण समुच्चरइ, ते सारद सुपसाइ॥ १ * इस रचनाकी क्रमाक १८२५ पर भी एक प्रति है। ये दोनो परमसागर कृत है।