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अन्त- कलस || ते जैन धरम विचार साभलि लिए सजम भाइ ए ।
परिसाह केरी सदा पालं नेम निरतीचार ए ॥ ७१ ॥ उ० मसारना सुष सकल भोगवी ते लहे भव पार ए ।
श्रीरतनहरप सुषास रंगै इम कहै श्रीसार ए ।। ७२
इति श्री उपदेशसनरी सपूर्णम् । स० १८३८रा मिती आसोज वदि ४ दिने प० श्रीकर्मसुन्दर कालूग्रामे उपकेस गर्छ ।
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ऊट तथा हाथीवर्णन
आदि- सुविसाल तुमाल जिके प्रति सोभित घाट सुघाट विध्यात घड्या । जटी चाल सुपाल हलत झमालय बन न थाल जके षडिया || बिते पक सुद्ध भला बगदा दीय कुरगह जेभ पये क्रमता । जग स दीइ मरे सहरो इस्यो घुघवडा मदिरा घुमता ॥ १ ग्रन्त- पट जेम उछाडिय पल्ल गेय वर फोज तरणा ग्रहरणा फबरणा । घन जे मग रज्जित मूल महा परण लाष बे लाष जिके लहरणा ॥ गढ भाज पाहाड विहाड कुरगम झाड उपाड वहे भलता । गजराज दिइ गजसिंघ कमध्वज इद्र जिसा हथियार हुता ॥ २ इति हाथीना वपारण ।
[ राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान
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एकलगिड वराहरी वात
आदि - ||०|| अथ एकलगिडवाराहरी वात लिप्यते ॥ जबुदीप भरथ षडमै ठाउँ गिरारो सिर अरबद । प्ररबद किसडोहेक छै । इण दूहा जिसडो ।
दूहा || वनस्पती पाषर वरणी, वरणीया टूक विहद ।
पटा बिब्बूटा नीररण, आयो मद अरबद ।। १ घूवी ल्बी घटा, सपर पपीया सद ।
लगसामु वाया लीये, आजु अरवद ॥ २
अन्त- दाढालो काम आयो भूण मती हुई । च्याक चेलरा काम प्राया । पाचमो चेल प्राबुजी रहसी । महारावजी वीमलदेन मारणहार हुसी । ऋषीश्वराराषा वचन सत्य हूवा । झूठामै हूवै रावजीने मारसी । गोठ षायने घरे पवारीया । उमरावान मीष दोधी । मुजरो करने साराही डेरे आप आप गया । महारावजी श्री वीसलदेजी दरबार पधारीया । सुषमै रहै छै । फतई हुई |
इति श्री दाढाली वाराहरी वार्त्ता सप्रण ॥ श्रीरस्तु | कल्याणमस्तु ।.
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एकाक्षर नाममाला
आदि- श्रीगणेशाय नम || अथ एकाषरी नाममाला लिप्यते ॥ दोहा || कहत प्रकार विस्नकू, पुनि महेस मतमान | प्रा ब्राह्मकू कहत हैं, ई जुगमा रमा जान ॥ १ अन्त- विदुषन मुष सुनि तरक षट अष्टादसहि पुरान | नाममाला एकाक्षरी, भाषी रतनू भान ॥ ३४