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३ पदार्थ उपरोक्त पदों के अर्थ ।
४ पदविग्रह - पदच्छेद करना ।
५ चालना - 'ननु' 'न च' आदिसे शंका उत्पन्न करना ।
६ प्रसिद्धि उठाई गई शंकाओंका समुचित समाधान । उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय द्वारा भी सूत्रोंकी व्याख्या की जाती है । इनका विवरण अनुयोगद्वारसूत्र में विस्तारपूर्वक पाया जाता है ।
वर्तमानकालमें उपलब्ध सूत्र
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११ अंग, ( १२ वें अंग दृष्टिवादका विच्छेद हो चुका है ) १२ उपांग, चार छेद, चार मूल और आवश्यक इस प्रकार ३२ सूत्र वर्तमानमें प्रामाणिक माने जाते हैं । अंगों का वर्णन समवायांगसूत्र एवं नंदीसूत्रमें पाया जाता है। शेष सूत्रोंके नाम नंदीसूत्रमें है । उपांग संज्ञा केवल निरियावलिकादिमें पाई जाती है । फिर भी १२ अंगोंके १२ उपांग माने जाते हैं । अंगसूत्रोंसे अतिरिक्त आगमोंकी अंगबाह्य संज्ञा भी है, जिसके दो भेद हैं- आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त । आ० व्य० के भी दो भेद हैं-कालिक और उत्कालिक । कालिकों उत्तराध्ययन, दशा- कल्प-व्यवहार, निशीथ, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, चंद्रप्रज्ञप्ति और निरियावलिकादि पांच उपांग परिगणित हैं । उत्कालिक में दर्शवेकालिक, औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञा पना, नंदी, अनुयोगद्वार, सूर्यप्रज्ञप्ति सन्निहित हैं । कालिकसूत्रका स्वाध्याय नियत समयपर ही किया जाता है । उत्कालिकसूत्रोंका स्वाध्याय यथोचित समयमें भी किया जा सकता है । नंदीसूत्रनिर्दिष्ट शेष सूत्र वर्तमान में नहीं हैं । अंगसूत्रोंका महत्त्व और उनका विषयादि 'सुत्तागमे' के प्रथम अंश में दिया जा चुका है । द्वितीय अंशमें समाविष्ट सूत्रोंका विषय-विवरण इस प्रकार है ।
बारह उपांग
प्रथम उपांग- औपपातिकसूत्र में चंपानगरी, पूर्णभद्र उद्यान, अशोक वृक्ष, पृथ्वीशिला-पटक, कोणिक राजा, धारिणी रानी, ज्ञातपुत्र महावीर भगवान्का समवसरण, तपके १२ भेद, साधुगण, कोणिकका महावीर प्रभुकी वंदना के लिए आगमन, अमुरादि देवोंका आना, भगवान्की देशना, अंबड परिव्राजक श्रावकका चरित्र, केवलिसमुद्घात और अन्तमें सिद्धोंका वर्णन है ।
द्वितीय उपांग- राजप्रश्रीयमें सूर्याभदेवका भगवान् महावीर स्वामीकी वंदना के लिए आना, गौतमस्वामी द्वारा उसके पूर्वभवकी पृच्छा, भगवान् द्वार सूर्याभदेव का पूर्वभव कथन, प्रदेशी राजाका केशीमुनिसे प्रश्नोत्तर, अंत में प्रदेशी द्वारा