SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कि ये आगमसूत्र जैनसाहित्यके लिए प्राणभूत है । इन आगमों का सहारा लेकर बड़े २ विद्वानोंने नाना प्रकारकी उत्तमोत्तम रचनाएँ की है । इससे यह पाया पड़ता है कि ये हमारे पवित्र आगम जिनशासनरूपी कल्पवृक्षके दृढ़तम मूल है। ___ आगम रचयिता—जिस समय तीर्थकर भगवान् चारो तीर्थोकी स्थापना करते है उस समय द्वादशांगीके बीजभूत महत्त्वपूर्ण तीन वचनोका प्रकाश गण. धरोके सन्मुख करते है, उस उत्पाद व्यय और ध्रौव्यरूप त्रिपदीके द्वारा गणधरदेव द्वादशांगीकी रचना करते है * वर्तमानसमयमें जो ३२ आगम उपलब्ध है वे सब ज्ञातपुत्र महावीर भगवान् के सदुपदेशोंसे भरपूर होने के कारण हमारे लिए अक्षय कोपके समान है। वर्तमान आगमोंका इतिहास-भगवान् महावीर प्रभुके निर्वाणसे ९८० वर्ष तक उस समयके साधु साध्वियों सम्पूर्ण सिद्धान्त-आगमोंको अपनी तीक्ष्णवुद्धिके कारण कण्ठस्थ रखते रहे। वे दिन रातमें १२ घण्टे तक उनका स्वाध्यायके रूपमें परावर्तन किया करते थे। इसके पश्चात् कालदोषसे स्मरणशक्तिमें कमी आ जानेके कारण जहाँ तहाँ स्खलना पड़ने लगी। कहा जाता है कि उस समयके विद्यमान आचार्य देवर्द्धिगणि क्षमा-श्रमणने इस कमीको महसूस किया 'जिनशासनकी रक्षा प्रत्येक प्रकारसे करनी चाहिए और शासनकी रक्षा सिद्धान्तकी रक्षा करनेसे ही हो सकती है, इस उद्देश्यसे उन्होने आगामी भव्यलोकोके उपकार के लिए वीरसवत् ९८० विक्रमसंवत् ५११, तदनुसार ई. सन् ४५४ मे वल्लभी नगरीमें तत्कालीन समस्त जैनमुनियोको एकत्रित किया जिसे जितना याद था सुना और फिर उस महान् ज्ञानको यथाक्रम पुस्तकारूढ़ किया । उस सम्मेलनके वाद मूलरूपसे गणधर भापित होनेपर भी सव आगमोके संकलयिता देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ही समझे जाने लगे, उदाहरणके लिए श्रीभगवतीसूत्र श्रीसुधर्माचार्य प्रणीत है और प्रज्ञापनासूत्र भगवान् महावीर प्रभुके निर्वाणके ३३५ वर्ष बाद श्रीश्यामाचार्य द्वारा संकलित किया गया पर भगवती मे कई स्थलोपर 'जहा पण्णवणाए' ऐसा पाठ .. अत्थ भासइ अरिहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउण। । पडिकमामि चउकाल सज्झायरस अकरणयाए; अथ च उत्तराध्ययने समाचारी नाम षड्विशतितमे अध्ययने प्रथमा समाचारी स्वाध्यायरूपा स्थापिता येन शानस्य विस्मरणं न भवेत्।। इतना और स्मरण रहे कि इससे पहले पाटलीपुत्र का सम्मेलन और नागार्जुनक्षमाश्रमणके तत्त्वावधानमे माथुरीवाचना हो चुकी थी । देखो 'आगमोंकी भाषा का प्रकरण ।
SR No.010590
Book TitleSuttagame 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Maharaj
PublisherSutragam Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages1314
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_acharang, agam_sutrakritang, agam_sthanang, agam_samvayang, agam_bhagwati, agam_gyatadharmkatha, agam_upasakdasha, agam_antkrutdasha, & agam_anutta
File Size89 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy