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से अधिक सस्ता विषय लिखने के लिए दूसरा नही मिल सकता। इसमे लेखक खूटे मे बधे हुए बछडे के सगान अपनी अत्यधिक सकुचित परिधि के अन्दर घूमता-धामता हुमा ही बिना अन्य विपयो का प्रध्ययन किने अपने को भारी विद्वान् मान कर लितता रहता है । विन्तु उसकी इस प्रवृत्ति से हमारे राष्ट्र, हिन्दी भाषा तथा स्वय उस लेखक तीनो की ही उन्नति अवरुद्ध हो जाती है। यदि भारतीय राष्ट्र तथा राष्ट्रभाषा की उन्नति करनी है तो हिन्दी को अपने आलोचनात्मक दृष्टिकोण को निम्नलिखित दिशाओं में व्यापक बनाना ही होगा।
नव रसों की सीमा को बढ़ाने की आवश्यकता भारत का कल्याण आज उन पुरागे ढग के नव रसो, उनकी कवितामो तथा समय का अपव्यय करने वाले उपन्यासो से नही हो सकता। आज उसको राजनीति, इतिहास, विज्ञान प्रर्यशास्त्र आदि विषयो के अनेकानेक ग्रन्थो की आवश्यकता है। अतएव साहित्य को पुराने नौ रसो की संख्या मे परिमित रखने से आज' साहित्य के अनेक अग न्याय प्राप्त करने से वचित हो रहे है । अतएव आज आवश्यकता इस बात की है कि नव रसो की इस सख्या को आगे बढा कर तीन-चार नए रसो की कल्पना की जावे । कम से कम यह तीन रस तो अत्यधिक आवश्यक है
इतिहास रस व विज्ञान रस तथा अन्वेषण रस-इन तीन रसो की कल्पना करके इन-इन विषयो के ग्रन्थो को साहित्य मे उनका उपयुक्त स्थान दिया जाना चाहिए । इतिहास रस मे राजनीति का अन्तर्भाव किया जा सकता है, क्योकि वर्तमान इतिहास ही राजनीति है और भूतकालीन राजनीति ही इतिहास है । विज्ञान रस मे भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, प्राणिशास्त्र, भूगर्भ विज्ञान, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र आदि विषयों का अन्तर्भाव किया जा सकता है। जो लोग इन सभी विषयो की शोध में रुचि रखते है, उनके लिए अन्वेषण रस की कल्पना भी करनी ही पडेगी। । इन विषयो का अध्ययन करने वाले इस बात को जानते है कि यह विषय रस शून्य नहीं है। एक प्राणिशास्त्र का विद्वान् अपने विषय में वर्षों तक केवल इसीलिए तन्मय होकर खोज करता रहता है कि उसको उसमे रस आता है।