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________________ श्रेणिक विन्धसार armmmmmmmmmmmmmmmmmm इन्द्रभूति-तो भगवन् ! जब कर्म फल देने वाला द्रव्य भी पुद्गल है तोमापने धर्म तथा अधर्म को पृथक् द्रव्य क्यो कहा ? भगवान्-यह धर्म तथा अधर्म द्रव्य पुण्य तथा पाप रूप न होकर दो अन्य ऐसे सूक्ष्म पदार्थ हैं, जिनको किसी सूक्ष्मदर्शक यत्र द्वारा भी नही देखा जा सकता । यह दोनो व्य समस्त लोकाकाश में व्याप्त है। धर्म द्रव्य जीव तथा पद्गल को गमन करने में उसी प्रकार सहायता करता है, जिस प्रकार मछली की सहायता जल करता है। किन्तु जिस प्रकार जल मछली को चलने की प्रेरणा नहीं करता, उसी प्रकार धर्म द्रव्य भी जीव तथा पुद्गल को चलने के लिये प्रेरणा नहीं करता । प्रकाश की किरणे सूर्य से होकर इस पृथ्वी पर धर्म द्रव्य के माध्यम से ही पाती है। जिस प्रकार धर्म द्रव्य जीव तथा पुद्गल के गमन में माध्यम बन कर सहायता करता है, उसी प्रकार अधर्म द्रव्य उन दोनो की ठहरने में सहायता करता है। इस विषय मे ग्रीष्मकाल मे किसी छायादार वृक्ष का उदाहरण लिया जा सकता है। चलने वाला पथिक यदि छाया मे ठहरता है तो वह छाया उसको सहायता देती है, किन्तु यदि वह ठहरना नही चाहता तो वह उसको ठहरने की प्रेरणा भी नही करती। इन्द्रभूति-पाकाश तथा काल द्रव्य किस को कहते है भगवन् ? भगवान् जो सब द्रव्यों को रहने का स्थान दे उसे प्राकाश द्रव्य कहा जाता है । वस्तु का पर्याय बदलना काल द्रव्य का काम है । काल द्रव्य के कारण ही एक नई वस्तु कुछ समय पश्चात् पुरानी हो जाती है, किन्तु काल का यह निश्चय रूप है। उसका व्यवहार रूप पल, घड़ी, प्रहर, अहोरात्र, सप्ताह, मास, वर्ष प्रादि समय है। इन छहो द्रव्यो के प्रदेश सयुक्त होते हैं, किन्तु काल द्रव्य के अणु रत्नो के ढेर के रत्नों के समान पृथक्-पृथक होते हैं । इसीलिये काल द्रव्य के अतिरिक्त शेष पाच द्रव्यो को अस्तिकाय कहा जाता है । इन छहो द्रव्यो के सक्षेप मे जीव तथा अजीव यह दो भेद भी किये जा सकते है। इन्द्रभूति-सात तत्त्व कौन से होते है ?
SR No.010589
Book TitleShrenik Bimbsr
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherRigal Book Depo
Publication Year1954
Total Pages288
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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