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श्रेणिक विम्बसार
सामने फैला दिये । उसने बड़े प्रेम से एक - एक ग्रास बनाकर उनके हाथो मे रखते हुए उनको उस उबली हुई कुलथी का आहार कराया। उस समय आकाश में दुन्दुभि बजने लगी । सब ओर जय-जयकार का शब्द होने लगा और सुमन-वृष्टि होने लगी । इस प्रकार अनेक नगरो मे विहार करने के बाद पाँच मास बाद भगवान् महावीर स्वामी ने आहार ग्रहण किया ।
चन्दनबाला के हाथ से भगवान् द्वारा आहार लिये जाने का समाचार बात की बात मे सारे कौशाम्बी भर में फैल गया। अब तो मूला सेठानी और उस रथवान की पत्नी ने भी आकर उसको सिर झुकाया । समाचार पाकर राजा शतानीक भी अपनी पत्नी महारानी मृगावती सहित उसके दर्शन को आया । महारानी मृगावती भी वैशाली के राजा चेटक की ही कन्या थी । चन्दनबाला उसकी भानजी थी । उसने चन्दनबाला को तुरन्त पहचान लिया और बोली
"अच्छा बेटी । तू इस दशा मे और सेठ धनावा के घर ?" "हाँ मौसी । मुझे मेरा भाग्य यही घसीट लाया ।"
"मुझे बेटी । चम्पापुर पर तेरे मौसा के चढाई करने का बड़ा दुख है । मैने उस युद्ध को रोकने का बहुत यत्न किया, किन्तु तेरे पिता तथा मौसा के विशेष मनोमालिन्य के कारण युद्ध अनिवार्य हो ही गया । फिर भी मैने अपने बटे उदयन से यह वचन ले लिया है कि वह गद्दी पर बैठते ही तेरे भाई दृढवर्मा को फिर अगराज बना कर चम्पापुरी के राजसिहासन पर बिठलावेगा । किंतु बेटी, तू यहाँ किस प्रकार आ पहुँची और तूने यहाँ आकर मुझे अपने आने का समाचार क्यो नही भिजवाया ?"
इस पर चन्दनबाला ने चम्पापुर से अब तक की सारी घटना सुनाकर उससे कहा
"मौसी, मै दासी हूँ । दासी को भला स्वतन्त्रतापूर्वक समाचार भेजने की सुविधा कहाँ होती है ! "
"नही बेटी ! अब तुम दासी नही, वब तो तुम मेरी भानजी हो । तुमको मेरे साथ ही रहना होगा ।"