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श्रणिक बिम्बसार
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प्राणियो की हत्या स्यो की । चण्डकौशिक कहा तो अपने फण को चौडा रिये भगवान के सामने पडा था, कहा वह उनके चरणो मे पडकर उनको चाटने लगा। जिन लोगो ने भगवान् को उस मार्ग से जाने को मना किया था वह उनका अनुसरण करते हुए बहुत दूर रहते हुए पीछे-पीछे चले आ रहे थे। उन्होने जो चण्डकौशिक को भगवान् के चरण चाटते तथा भगवान् को उसके सिर पर हाथ रखते हुए देखा तो उन्हे बडा भारी आश्चर्य हुआ। अन्त मे भगवान् महावीर उस सर्प को हिसा न करने का उपदेश देकर आगे चले गए और लोगो ने उस वन मे बेखटके आना जाना आरम्भ कर दिया।
एक बार भगवान् परिभ्रमण करते. हुए अवन्ती देश की राजधानी उज्जयिनी पहुँचे । वह वहा की अतिमुक्तक नामक श्मशान भूमि में रात्रि के समय प्रतिमायोग धारण करके खडे हुए थे कि भव नामक एक रुद्र पुरुष ने उनको बडा भारी कष्ट दिया। किन्तु भगवान् अपने ध्यान से न डिगे और समस्त कष्ट को सहन करते हुए उसी प्रकार घ्यान में लगे रहे। भगवान् के इस प्रकार अविचल ध्यान को देखकर उस अत्याचारी का हृदय बदल गया
और उसको अपने किये पर घोर पश्चात्ताप हुआ । अन्त मे वह भगवान् को 'नमस्कार' करके वहा से चला गया।
उज्जयिनी से भगवान् वत्स देश की राजधानी कौशाम्बी गये । यहा उन दिनो वही राजा शतानीक राज्य करता था, जिसके साथ भगवान् की मौसी मृगावती का विवाह हुआ था। उन्होंने भगवान का सम्मान करना चाहा, किन्तु भगवान ने उन दिनो पूर्णतया मौनव्रत लिया हुआ था। अत. राजा शतानीक तथा रानी मृगावती को उनकी कोई भी सेवा करने का अवसर न मिला । इन दिनों भगवान् ने एक कठिन अभिग्रह धारण किया हुआ था, जिससे यद्यपि वह नगर मे आहार के लिये दैनिक जाते थे, किन्तु अभिग्रह पूरा न होने के कारण सदा ही खाली वापिस आते थे । इन दिनो कौशाम्बी मे चम्पा को जीत कर अग देश को अपने राज्य में सम्मिलित करने का विशेष उत्सव मनाया जा रहा था।