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गौतम सिद्धार्थ तथा बिम्बसार
आज राजगृह नगर मे सब ओर लोगो के ठट्ठ के ठठ्ठ लगे हुए है। राजमार्गों सडको और गलियो सभी मे लोग दो-दो, चार-चार, बीस-बीस और तीस-तीस की टोलियो मे जमा होकर चर्चा कर रहे है । उनकी चर्चा का मुख्य विषय एक निरीह तथा अकिचन साधु है । उस समय एक स्थान पर इस प्रकार चर्चा रही थी ।
एक - भाई, कितने आश्चर्य की बात है कि एक राजकुमार इस प्रकार भिखारियो जैसे फटे-पुराने वस्त्र पहिने घर-घर भिक्षा मागे ।
दूसरा - अजी ! नालायक होगा । मा-बाप ने घर से निकाल दिया होगा ? तीसरा -- कैसी बात करते हो धनदत्त तुम । घर वालो ने उसे नही निकाला, वरन् उसने ही घर को अपनी इच्छा से छोडा है ।
धनदत्त - तो इस प्रकार फटे हाल घर-घर भिक्षा माँग कर वह कौनसा अपने मा-बाप का नाम ऊँचा कर रहा है, मित्र यज्ञदत्त 1
चौथा - भाई, उसको समझने की कोशिश करो। उसके सम्बन्ध मे इस प्रकार की अनर्गल बाते मत करो धनदत्त ! वह ससार के सबसे बड़े महापुरुषो में से एक है ।
यज्ञदत्त - वह किस प्रकार ? मित्र भद्रक !
भद्रक - इसलिये कि एक राजकुमार होते हुए भी उसने अपने तथा ससार के कल्याण का मार्ग तलाश करने के लिये राजसम्पदा, माता-पिता, स्त्री-पुत्र तथा देवोपम भोगोपभोग सभी का त्याग किया है ।
धनदत्त - अच्छा । वह सचमुच मे ही राजवशीय है ? भला कहा का निवासी है वह
?
भद्रक—वह कपिलवस्तु के शाक्यवशीय राजा शुद्धोदन का एक मात्र पुत्र है । घर पर उसकी प्राणप्यारी पत्नी महारानी यशोधरा तथा एक प्यारा पुत्र
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