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पिता-पुत्र की भेंट
अभयकुमार को भक्तिपूर्वक प्रणाम कर महाराज का सन्देश उनको ज्यो का त्यो कह सुनाया । सम्राट् द्वारा कुमार के बुलाए जाने का समाचार सारे नन्दिग्राम मे फैल गया । इस समाचार को सुन कर वहाँ के समस्त ब्राह्मण फिर घबरा गए। उनके मन मे अनेक प्रकार के सकल्प-विकल्प उठने लगे । वह यही सोचने लगे कि "अब की बार हमारी रक्षा किसी प्रकार भी नही हो सकती । अब तक तो कुमार ने हमारे जीवन की रक्षा कर भी ली, किन्तु अव कुमार के चले जाने पर हमको सम्राट् के कोपानल मे भस्म होना ही पडेगा । वास्तव मे कुमार को सम्राट् ने गिरिव्रज बुलाकर बडा अनर्थं किया । हे ईश्वर हम से ऐसा क्या पाप बन गया है, जिसके फलस्वरूप हम दुख ही दुख भोग रहे है । प्रभो ! हमारी रक्षा करो। " इस प्रकार रोते-चिल्लाते हुए वे सब ब्राह्मण कुमार अभय की सेवा में उपस्थित होकर उच्च स्वर से रोने लगे । उनको ऐसी दु.खी अवस्था मे देखकर कुमार बोले
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"ब्राह्मणो ! आप क्यो इतना खेद करते हो ? सम्राट् ने मुझे जिस प्रकार आने को आज्ञा दी है, मैं उनके पास उसी प्रकार जाऊँगा । गिरिव्रज मे भी में आप लोगो का पूरा ध्यानं रखू गा । आप लोग किसी प्रकार की चिन्ता न करे ।"
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ब्राह्मणो को इस प्रकार धैर्य बधा कर कुमार ने अपने समस्त सेवको को तय्यार करने के लिये अपने नाना सेठ इन्द्रदत्त से कहा । उनकी आज्ञा के साथ उनके सभी अनुचर जाने के लिये तुरन्त तय्यार हो गए । सेठ इन्द्रदत्त एक रथ पर पृथक् बैठे । कुमार ने अपने लिये जो रथ मगवाया उसके बीच मे एक छीका बघवा दिया |
जिस समय दिन समाप्त होने पर सध्या काल हुआ ता कुमार ने गिरिव्रज की ओर को अपने समस्त सेवको तथा अगरक्षको सहित रथ को हकवा दियां 1 चलते समय रथ का एक पहिया मार्ग मे चलाया गया और दूसरा सडक की बगल मे उन्मार्ग मे डाल दिया गया । कुमार ने चलते समय चने का आधे पेट भोजन किया । उन्होने रथ मे जो छीका बधवाया था उसमे वह स्वय बैठ गए । इस प्रकार अनेक विप्रो के साथ अभयकुमार आनन्दपूर्वक गिरिव्रज पहुँच गए ।