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ज्यों दीपक रजनी समें, चहुँ दिशि करे उदात। प्रगटे घटघट रूपमें, घटपट रूप न होतः॥६६॥ त्यों सुज्ञान जाने सकल, ज्ञेय वस्तुको मर्म । ज्ञेयाकृति परिणमे पै, तजे न आतम धर्म ॥ ६७ ॥ ज्ञानधर्म अविचल सदा, गहे विकार न कोय।। राग विरोध विसोह भय, कबहूं भूलि न होय ॥ ६८॥ ऐसी महिमा ज्ञानकी, निश्चय है घटसाहि। . . मूरख मिथ्यावृष्टिसों, सहज विलोके नांहि ॥६९ ॥ .. पर स्वभावमें मगन रहे, ठाने राग विरोध । धरे परिग्रह धारना, करे न आतम शोध ॥ ७० ॥ चौपाई-मूरखके घट दुरमति भासी। पंडित हिये सुमति परकाशी ॥ दुरमति कुबजा करम कमावे । सुमति राधिका राम रमावे ॥ ७१ ॥ . दोहा-कुब्जा कारी कूबरी, करे जगतमें खेद । असख अराधे राधिका, जाने निज पर भेदं ॥७२॥
३१ सा-कुटिला कुरूप अंग लगी है पराये संग, अपनो प्रमाण करि आपहि बिकाई है ॥ गहे गति अंधकीसी, सकति कमंध कीसी बंधकों बढाव करे धंधहीमें धाई है ।। रांडकीसी रीत लिये मांडकीसी मतवारि, सांड. ज्यों स्वछंद डोले भांडकीसी जाई है ॥ घरका न जाने भेद करे पराधीन . खेद, याते.दुरबुद्धी दासी कुवजा कहाई है ॥७३॥ . __रूपकी रसीली भ्रम कुलपकी कीली शील, सुधाके समुद्र झीलि सलि . सुखदाई है ॥ प्राची ज्ञानभानकी अनाची है निदानकी, सुराचि निरवाची