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( ७ )
दोहा.
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कहूं शुद्ध निश्चयकथा, कहूं शुद्ध व्यवहार । मुकति पंथ कारन कहूं, अनुभौको अधिकार ॥ १६ ॥ वस्तु विचारत ध्यावतैं, मनपावै विश्राम । रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभौ याको नाम ॥ १७ ॥ अनुभौ चिंतामणि रतन, अनुभव है रस कूप । अनुभौ मारग मोक्षको, अनुभौ मोक्ष स्वरूप ॥ १८ ॥ सवैया ॥ ३१ सा.
अनुभौके रसको रसायण कहत जग, अनुभौ अभ्यास यहू तीरथकी ठौर है | अनुभौकी जो रसा कहावै सोई पोरसासु, अनुभौअधोरसासु ऊरकी दौर है | अनुभौकी केलिइह कामधेनु चित्रावेल, अनुभौको स्वाद - पंच अमृतको कौर है | अनुभौ करम तोरे परमसो प्रीति जोरे, अनुभौ समान न धरम कोऊ और है ॥ १९ ॥
- दोहा.
चेतनवंत अनंतगुण, पर्यय शक्ति अनंत । अलख अखंडित सर्वगत, जीवद्रव्य विरतंत ॥ २० ॥ फरस वर्ण रस गंधमय, नरदपास संठान | अनुरूपी पुद्गल दरव, नभ प्रदेश परवान ॥ २१ ॥ जैसे सलिल समूहमें, करै मीनगति कर्म । तैसें पुदगल जीवको, चलन सहाई धर्म ॥ २२ ॥