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(७८) सुख रासि धरम ध्रुव । करि पूरण थिति आउ, त्यागि गत भाव परम हुव। इह विधि अनन्य प्रभुता धरत, प्रगटि बुंद सागर भयो । अविचल अखंड अनभय अखय, जीवद्रव्य जगमाहि जयो ।। ५१ ॥
३१ सा-ज्ञानावरणीके गये जानिये जु है सु .सव, दर्शनावरणके गयेते सब देखिये ॥ वेदनी करमके गयेते निरावाध रस, मोह- . नीके गये शुद्ध चारित्र विसेखिये ॥ आयुकर्म गये अवगाहन अटल होय, '. नाम कर्म गयेते अमूरतीक पेखिये | अगुरु अलघुरूप होय गोत्र कर्म गये, अंतराय गयेते अनंत वल लेखिये ॥ १२ ॥
॥ इति नवमो मोक्षद्वार समाप्त भयो ॥ ९ ॥
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॥ अथ दशमो सर्वविशुद्धि द्वार प्रारंभः॥१०॥ इति श्री नाटकग्रंथमें, कह्यो मोक्ष अधिकार ॥
अब बरनों संक्षेपसों, सर्व विशुद्धीद्वार ॥१॥ .३१ सा-कर्मनिको करता है भोगनिको भोगता है, जाके प्रभुतामें . ऐसो कथन अहित है ॥ जामें एक इंद्रियादि पंचधा कथन नाहि, सदा निरदोष वंध मोक्षसों रहित है ॥ ज्ञानको समूह ज्ञान गम्य है स्वभाव जाको, लोक व्यापि लोकातीत लोकमें महित है ॥ शुद्ध वंश शुद्ध चेतनाके रस अंश भन्यो, ऐसो हंस परम पुनीतता सहित है ॥ १॥ जो निश्चै निर्मल सदा, आदि मध्य अरु अंत । सो चिद्रूपं वनारसी, जगत माहिं जैवंत ॥ २॥