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(७६) जे प्रमाद संयुत मुनिराजा । तिनके शुभाचारसों काना ॥ ३५ ॥ जहां प्रमाद दशा नहिं व्यापे । तहां अवलंबन आपो आपे ॥ ता कारण प्रमाद उतपाती । प्रगट मोक्ष मारगको घाती ॥ ३६॥ ने प्रमाद संयुक्त गुसांई । उठहि गिरहि गिंद्रुकके नाई ॥ जे प्रमाद तनि उद्धत होई । तिनको मोक्ष निकट द्विग सोई ।। ३७ घटमें है प्रमाद जव ताई । पराधीन प्राणी तब ताई ॥ जव प्रमादकी प्रभुता नासे । तव प्रधान अनुभौ परकासे ॥ ३८ ॥ ता कारण जगपंथ इत, उत शिव भारंग जोर । परमादी जगकू दुके, अपरमाद शिव ओर ॥ ३९ ॥ जे परमादी आलसी, जिन्हके विकलप भूर । होइ सिथल अनुभौविषे, तिन्हको शिवपथ दूर ॥४०॥ जे परमादी आलसी, ते अभिमानी जीव । जे अविकलपी अनुभवी, ते समरसी सदीव ॥४१॥ जे अविकलपी अनुभवी, शुद्ध चेतनायुक्त । ते मुनिवर लघुकालमें, होई करमसे मुक्त ॥ ४२ ॥ कवित्त-जैसे पुरुष लखे पहाढ चढि, भूचर पुरुष तांहि लघु लग्गे॥ भूचर पुरुष लखे ताको लघु, उतर मिले दुहूको भ्रम भग्गे ॥. तैसे अभिमानी उन्नत गल, और जीवको लघुपद दग्गे ॥ . . अभिमानीको कहे तुच्छ सब, ज्ञान जगे समता रस जम्गे ॥ १३ ॥
३१ सा-करमके भारी समुझे न गुणको मरम, परम अनीति अधरम रीती गहे है ।। होइ न नरम चित्त गरम धरम हूते, चरमकी