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मम अंग नांहि विय । करम वेदना .. द्विविध, एक सुखमय द्वतीय दुख। दोऊ मोह विकार, पुद्गलाकार बहिर्मुख. जब यह विवेक मनमें धरत, तव न वेदना भय विदित । ज्ञानी निशंक , निकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंत नित ॥ १२॥
अनरक्षाके भय निवारणकू मंत्र (उपाय) कैहे है ॥ छप्पै छंद.
जो स्ववस्तु सत्ता त्वरूप, जगमांहि त्रिकाल गत । तास विनाश न होय, सहन निश्चय प्रमाण मत । सो मम आतम दरव, सरवथा नहि सहाय.धर । तिहि कारण रक्षक न होय भक्षक न कोय पर.। जब यह प्रकार निरधार किय, तब अनरक्षा भय नसित । ज्ञानी निशंक निकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंत नित ॥ १३ ॥. .. . . . . . . . .
चोरभय निवारणकू मंत्र (उपाय ) कहे है ॥६॥ छप्पै छंद. . परम रूप परतच्छ, जासु लच्छन चित मंडितः । पर परवेश तह नाहि, : माहि. महिअगम अखंडित 1. सो मम रूप अनूप, अकृत अनमित . अटूट धन । तांहि चोर किम गहे, ठोर नहिं लहे और जन । चितवंत एम घरि ध्यान जव, तब अगुप्त भय उपशमित । ज्ञानी निशंक निकलंक निज,. ज्ञानरूप. निरखंत नित ॥ ५४॥. . . . . .. अकस्मात्के भय निवारणकू मंत्र (उपाय) कहे है। छप्पै छंद.. .
शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध, संहन सुसमृद्ध सिद्ध सम । अलख अनादि अनंत, अतुल अविचल स्वरूपं मम । चिंदविलास परकाश, वीत विकलप सुख थानको जहां दुविधा नहि कोइ, होइ तहां कछु न अचानक । जब यह विचार
उपजंत. तव; अकस्मात भयं नहि उदित । ज्ञानी निशंक निकलंक निज, . ज्ञानरूप निरखंत नित ॥ ५५॥ . . . . . .